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Tuesday, December 27, 2011

अलविदा 2011


अलविदा 2011
अलविदा बीते वर्ष, अलविदा !
चले जाओ तुम भी रूठ कर !
मेरे अपने अरमानों को कुचल कर !
कितनी आषाएँ थी कितनी उम्मीदें थी !
चले जाओ तुम सब रौंद कर !
मन बुझा है तुम्हें क्या ?
दिल टुटा है तुम्हें क्या ?
तुम तो मन भर जिये हो ना
मेरी पीर का तुम्हें क्या ?
तुम तो खुष हो ना ?
सत्य र्साइं का साथ छुडाकर !
वैष्विक मंदी फैलाकर !
नित नये घोटाले कर !
सात अरब जन संख्या बनाकर !
फिर भी विदाई तो तुम्हें देनी ही होगी !
औपचारिक पार्टी में धन्यवाद तो देना ही है !
तुमने कुछ अच्छा जो किया है !
गरीब को खाद्य सुरक्षा का आष्वासन दिलाकर !
उपवासांे का महत्व समझा कर !
तिहाड़ का मान बढाकर !
अग्नि, पृथ्वी और अस्त्र दिलाकर !


Friday, December 23, 2011

Chitransh soul: चंचल मन

Chitransh soul: चंचल मन: जिस प्रकार समंुद्र की कोई सीमा या गहराई नही होती वह विशाल, गहरा और अमर्यादित होता है उसी प्रकार हमारे मन को खुला छोड़ दे तो मन के कल्पना की भ...

Chitransh soul: क्रिसमस

Chitransh soul: क्रिसमस: यदि आप क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बच्चों को गिट देने के लिये चाबी वाले खिलौने, स्टार, गुड़ियाएँ, गुल्लक, टाफियॉ और अन्य उपहार खरीद रहे हैं त...

क्रिसमस

यदि आप क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बच्चों को गिट देने के लिये चाबी वाले खिलौने, स्टार, गुड़ियाएँ, गुल्लक, टाफियॉ और अन्य उपहार खरीद रहे हैं तो खरीदते समय बच्चों की पसंद का घ्यान जरूर रखें अन्यथा षायद बच्चों को आपका दिया उपहार पसंद ही ना आयें और आप निराष हो जायें । आजकल बाजार में आकर्षक और सस्ते विदेषी खिलौने ने बच्चों का घ्यान आकर्षित कर रखा है। इस लिये आपके खरीदे पारंपरिक खिलौने या चाबी वाले खिलौनो की जगह उन्हें कम्प्यूटराइज्ड गेम या रिमोट वाले गिट ही पसन्द आयेंगे। जिससे वो अपने साथियों पर रौब जमा सकें। आज बच्चे कार्टून या पावर रेंजर देखते देखते अपने आप को उनसे जोड़ने लगे हैं और पिस्तौल, टैंक या स्टेनगन वाले खिलौने हासिल करके उन जैसा बनना चाहते हैं। इसी प्रकार जब से विदेषी ब्राउन चॅाकलेट या कॉफी चॅाकलेट बाजारों में आसानी से उपलब्ध होने लगी हैे साघारण टाफियाँ तो मानो बच्चों का स्टैण्डर्ड कम कर रही है। कहीं ऐसा ना हो कि आपका गिट बांटने का उत्साह ही ठंडा हो जायें। इसलिये आजकल के हाई प्रोफाइल बच्चों की पसंद का घ्यान जरूर रखें। लेकिन अपने अनुभव का फायदा उठाते हुए यह कोषिष करें कि जो भी गिट दें उससे बच्चों को आगे बढ़ने को मौका मिले उससे वह कुछ नया सिखें।

Thursday, December 22, 2011

चंचल मन

जिस प्रकार समंुद्र की कोई सीमा या गहराई नही होती वह विशाल, गहरा और अमर्यादित होता है उसी प्रकार हमारे मन को खुला छोड़ दे तो मन के कल्पना की भी कोई मर्यादा, सीमा या गहराई नही होती।


खुशनुमा मौसम, अवकाश का दिन...........चिड़ियाओं की चहकने की संगीत लहरियां......... शहर के बगीचें में बैठा प्रकृति का आनन्द उठा रहा हूँ..........हाथ की कलम मन के उद्गारों को कागज पर उकेरने के लिए बेताब.........  प्रफुल्लित चंचल मन इधर-उधर भटक कर सामने पेड़ों पर अटक गया..........एक बन्दर इस टहनी से उस टहनी, इस पेड़ से उस पेड़ पर उछल रहा है। यदि किसी टहनी पर रूक भी जाता है तो बैठा- बैठा तरह तरह की हरकतें करने लगता है। उसको देखकर मुझे लगा कि एक बन्दर मेरे अंदर भी तो है “ मन रूपी बन्दर “। वो भी तो कभी एक जगह नही टिकता है हमेशा विभिन्न क्रिया कलापों में या ऐसी कल्पनाओं में खोया रहता है जिनकी ना तो कोई दिशा होती है। और ना ही अस्तित्व होता है बस सदैव चंचल और चलायमान बना रहता हैं।
 लेकिन शायद मेरे मन को अपनी तुलना बन्दर से करना अच्छा नही लगा और उसने पलट कर स्वयं मेरे से ही प्रश्न पूँछ लिया कि क्या मैं चंचल हूॅ ? और यदि हूँ भी तो क्या मुझे चंचल नही होना चाहिए ? उसके प्रश्न ने मुझे सोच में डाल दिया मैं विभिन्न उत्तर और उनके कटाक्ष सोचने लगा। लेकिन मैं अपने किसी उत्तर से सन्तुष्ट नही हो पाया इसलिए इस प्रश्न को मैने आप से साझा करने का निर्णय लिया । अब मैं अपने मन में आये विभिन्न विचारो को आपके समक्ष रख रहा हूँ । आप ही सही निर्णय करके बताएं और अपने-अपने मन को भी समझा दें।
 हमारा मन ( संस्कृत में मनस ) शरीर का वह भाग है जिसमें हमारे विचार उत्पन्न होते है, विज्ञान हमारे मन कि तीन अवस्थायें (चेतन, अर्द्धचेतन, अचेतन) बताता है । इसमे से मन का मात्र दस प्रतिशत हिस्से चेतन मन से हम अपने दैनिक क्रिया कलाप करते है, शेष 90 प्रतिषत हिस्सा अचेतन मन हमारा कल्पना लोक होता है और हमारे याद करने, निर्णय लेने या अपनी ईच्छा-अनिच्छा आदि दिखाने के समय हमारे मन की अर्द्ध चेतन अवस्था काम आती है। इसके अलावा हमारे मन की अनगिनत दशायें जिन्हें हम प्रति क्षण महसूस करते है जैसे - स्नेह, दया, ममता, त्याग, विश्वास, आत्मसर्मपण, श्रद्धा, संवेदना, कामवासना, मोह, वात्सल्य, कौतूहल, ईर्ष्या, द्वेष, करूणा, गुस्सा, जिज्ञासा, आशा, निराशा आदि।
     
       अब आगे बढने से पहले हमारे सामने यह प्रशन आता है कि इस मन का जन्म हमारे शरीर में होता कब है ? इसको ऐसे समझने की कोशिश करें की जब हमारे निर्जीव शरीर में परम आत्मा अपना कुछ अंश हमारी आत्मा के रूप में प्रविष्ट करवाती है जिससे हमारे शरीर में चेतना का संचार होता है बस यही तो हमारे मन का जन्म है। चुंकि यह शरीर में अद्व्रशय रूप में रहता है इसलिये इसके आकार में समय के साथ साथ परिवर्तन की आवश्यकता नही होती अतः हमारा मन ही हमारे शरीर एक मात्र का वह भाग हो गया जो जन्म के समय से ही पूर्ण विकसित होता है अतः बचपन से बुढापे तक के सफर में इन्सान का मन समान रहता है इसलिए कहा जाता है कि “ इंसान का मन कभी भी बुढ़ा नही होता है ”
     
      यह हमारे जागने तथा सोने दोनो अवस्थाओं में निरन्तर कार्य करता रहता है जब हम जाग रहे होते है तो घर-परिवार, इधर-उधर, भूत-भविष्य में लगा रहता हैं और जब हमारा शरीर सोता है तब हमारा मन सपनों या कल्पनाओं में खो कर पता नही कहां कहां विचरता रहता है। अतः यदि हम हमारे मन को दिव्य शक्ति या परम शक्ति (सुपर-पॉवर) भी कह दें तो गलत नही होगा।
    
      मन के बारे में और भी अनेक जरूरी बातें मैं यहां लिखना चाहता हूँ लेकिन कहीं मैं मेरे मन के पूछे मूल प्रश्न, कि क्या मैं चंचल हूँ और क्या मुझे चंचल होना चाहिए ? उससे भटक ना जाऊं इसलिये इसके उत्तर के लिये आगे बढ़ते हुए मुझे मन की गति पर भी घ्यान देना होगा। इस संसार में मौजूद किसी भी गति से अधिक तेज हमारे मन की गति होती है तभी तो जब हम अपने पूर्वजों को याद करते है तो हमारा मन स्वयं जाकर क्षण भर में उनका चित्र हमारे सामने रख कर उनके साक्षात दर्शन भी करा देता है और हमारे आखें बन्द करते ही एक क्षण में अन्तरिक्ष की सैर भी कर आता है ।
      हम अपने मन की तुलना कई प्रकार से कर सकते हैं जैसे यह उस बालक के समान हैं जिस पर छोटा होने के कारण कोई अंकुश नही लगाते, जिससे वह जिद्दी होकर मनमानी करने लगता है दूसरे बच्चों के खिलौने छीन्ने लगता है, अपने खिलौनों पर किसी को हाथ नही लगाने देता और माता-पिता, दादा-दादी पर केवल अपना ही अधिकार समझता हैं।
    
      आज के परिवेश में मन की तुलना करना चाहें तो यह उस अधिकारी के समान हैं जो अपने मातहत् कर्मचारियों को विभिन्न काम में लगा कर जब काम होने लगता है तो स्वयं वहां से कहीं ओर चला जाता है और अपने कार्य में वयस्त हो जाता है।
   
      इस अधिकारी के समान हमारा चंचल मन भी विभिन्न कल्पनायें , योजनाएं बनाता है और उसे शरीर की विभिन्न इन्द्रियों से पूरी ताकत लगाकर साकार करवाने में लग जाता है। जब तक वह साकार नही हो जाती मन को तृप्ति नही मिलती है और साकार होते ही मन उससे ऊब कर नई कल्पना बनाकर कहीं ओर भटकने लगता है। अर्थात हमारा मन कल्पनाओं का आदि हो गया है। जो कभी सन्तुष्ट नही होता इसलिए सुखी भी नही हो पाता। सन्तुष्ट  हो जाय तो सुखी हो जाय, कहते भी हैै ना ’’संतोशी सदा सुखी’’।      
    
       जिस प्रकार समंुद्र की कोई सीमा या गहराई नही होती वह विशाल, गहरा और अमर्यादित होता है उसी प्रकार हमारे मन को खुला छोड़ दे तो मन के कल्पना की भी कोई मर्यादा, सीमा या गहराई नही होती। और यह हमारे मन की चंचलता ही तो है जो मन में विभिन्न असीमित, अमर्यादित कल्पनायें बनाकर हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार की हलचल मचाती रहती है । मन के यही सभी लक्षण उसकी चंचलता साबित करते है जो कभी भी एक काम से संतुष्ट नही होता है।
    
      चूंकि अभी तक मन की चंचलता लगभग साबित हो चुकी हैं अतः सभ्य समाज में रहने के कारण उसे नियंत्रित कर सही दिशा में आगे बढ़ाकर जीवन का आनन्द लेने के उपाय भी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है ।
     
       ईश्वर ने प्रत्येक प्राणी को समान मन देकर पृथ्वी पर भेजा है सभी केे मन में विकास और विनाश दोनो तरह की कल्पनाऐं बनती रहती हैं यदि हम हमारे मन पर नाजायज कब्जा जमाये बैठे बुरे किरायेदारों (क्र्रोध, कामवासना, लालच, ईर्ष्या, अंहकार , द्वैष आदि) से मन को खाली करवा कर उसमें अच्छे किरायेदारों (सदगुण, सेवाभाव, ज्ञान, परोपकार आदि) को रखने में कामयाब हो जाते हैं तो हम योगी बन जाते है। और जीवन का सही आनंद उठा पाते हैं अन्यथा भोगी या साधारण मनुष्य बनकर अपना जीवन नर्क बना लेते हैं। इसके लिये जैसे जैसे हम ईश्वर भक्ति द्वारा सदगुणों को बढाते जायेंगे मन के बुरे किरायेदारों का दम घुटने लगेगा और मजबूर होकर उन्हें मनरूपी मकान खाली करके जाना ही पड़ेगा जिससे हमारा मन निर्मल बनता जायेगा।
     
       हम मर्यादा में रहकर ईश्वर भक्ति, ब्रह्म ज्ञान व योग का सहारा लेकर यदि अपने मन को नियन्त्रित करने का प्रयास करेंगे तथा अपने अन्तर मन में झांक कर उसे पढ़ने की कोशिश करेंगे तो हमारे आत्म ज्ञान में वृद्धि होगी और हमारे मन कि चंचलता { भटकना} नियंत्रित होगी जिससे मन स्वयं हमारे व समाज के विकास की दिशा में मुड़ जायेगा। सही दिशा मिलने पर मन के असंतोष से पैदा होने वाली क्रान्ति भी खत्म हो जाती है।
     
      इसी प्रकार मन की चंचलता पर एकाग्रचित होकर भी अंकुश लगाया जा सकता है। जिस प्रकार हम अपने पंसदीदा कार्यक्रम को टीवी में देखते समय अपना पूरा ध्यान उस तरफ लगा लेते हैं अर्थात मन से उससे जुड़ जाते हैं तो पूर्ण आनन्द प्राप्त होता है उसी प्रकार निर्णय लेते समय हम मन के साथ-साथ बुद्धि और परिणाम का ध्यान पूरे एकाग्रचित होकर लगायेंगे तो अन्तर मन की गवाही हमें सही मार्ग पर चलने की राह दिखायेगी और सदैव चंचलता पर अंकुश लगाने में सफलता ही हासिल होगी।
      मेरी इस बात से तो आप सहमत ही होगें कि हम किसी अन्य व्यक्ति के मन में चल रहे विचार व उसकी मनः स्थिति के बारें में मात्र कयास ही लगा सकते हैं कि उसके मन में क्या चल रहा है। लेकिन हम अपने आप के मन को तो सबसे बेहतर तरीके से जानते ही हैं कि हम क्या हासिल करना चाहते हैं चंूकि विचार हमारे हैं तो मंजिल भी हमारी ही होगी। अतः सर्व प्रथम हमे अपनी मंजिल का मन के साथ साथ बुद्धि लगाकर निधार्रण करना होगा। और आकलन करना होगा कि हमारे मन ने जो कार्य इन्द्रियों को करने के लिए दिया है वह सही है या नही ? इसे ही बोल-चाल की भाषा में हम “मन की गवाही देना ” भी कह सकते हैं।
      जिस प्रकार क्र्रिकेट मैच प्रारम्भ होने से पूर्व अम्पायर सिक्का उछाल कर प्रथम निर्णय लेेने का अधिकार सुनिश्चित करता है उसी प्रकार यदि हम भी कभी अपने दोनो मन की लड़ाई में घिर जायें और अनिश्चितता, अनिर्णय की स्थिति में आ जायें तो हमें भी दोनो मन के बीच सिक्का उछाल कर मन की गवाही से ही निर्णय लेना चाहिये। अर्थात हमें अपने चंचल मन की कल्पनाओं-इच्छाओं को बुद्धि रूपी छलनी से छानना होगा क्योंकि मन जब बुद्धि के साथ मिलकर काम करेगा तो ही हमारे ” मन की गवाही का जन्म ” होगा।
   हमको मालूम होना चाहिये कि हमारा मन सभी इन्द्रियों को बस में कर स्वयं उनका राजा बन गया है। हमें अपनी इन्द्रियों को उसके पॉश से छुड़ाने के लिए राजा रूपी मन को ही वश में करने का अभ्यास करना होगा। जो कि अत्यन्त कठिन कार्य जरुर है लेकिन असम्भव बिलकुल नही है। मन को वश में करने से मेरा तात्पर्य यह नही है कि आप कल्पना करना ही छोड़ दें इससे तो मन जड़ रूप हो जायेगा और हमारी आत्मा शरीर छोड़ कर चली जायेगी जिससे हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। हमें तो मात्र अपने मन को शान्त, एकाग्रचित बनाने का अभ्यास करना है जिससे वो सार्थक कल्पनाऐं करे और सदमार्ग पर ही चलें।
      
        इस अभ्यास को करने के लिए जब-जब हमारा मन कोई गलत मार्ग चुने तो हमारी बाकी इन्द्रियों से उसे असहयोग करवाना होगा। जैसे- हमें कोई वस्तु खाने की इच्छा हुई और हमारे मस्तिष्क के आदेश देने पर हाथ ने वो वस्तु उठाकर मुँह में डाली तभी तो हम उसे खा पाये। यदि हमारा हाथ वस्तु उठाकर मुँह में नही डालता तो हम उस वस्तु को नही खा सकते थे इसी प्रकार कामवासना झूठ, लालच, अपराध आदि कार्यों की इच्छा होने पर हम अपनी इन्द्रियों पर काबू करने का अभ्यास करके अपने बुरे मन से असहयोग करेें तो हमसे वह कार्य नही हो पायेंगें और हम भोगी व अत्याचारी होने से बच पायेंगे जिससे हमारा मन धीरे-धीरे विशाल और सच्चा बनने लगेगा और उसमें ईश्वर का वास होने लगेगा।       
      
       जैसे जैसे हम अपनी कल्पनाओं-इच्छाओं पर नियंन्त्रण करने में कामयाब होते जाते है वैसे वैसे हमें सुख-दुख, अमीरी-गरीबी, भेद-भाव, ऊँच-नीच, मान-अपमान आदि का अन्तर कम महसुस होने लगता है और हम शान्त व सन्तुष्ट होने लगते हैं। अर्थात हमारी आत्मा परमात्मा की तरफ कदम बढाने लगती है। जिसे देव पुरूष बनना भी कह सकते हैं।

       अभी तक मेरेे मन में आये विचारों के अनुसार मेरी निजी राय यही बनी है कि मन का चंचल होना अति आवश्यक है क्योंकि इन्सान कल्पनाओं को मूर्तरूप देकर ही विकास कर सकता है। कल्पना विहीन मानव का जीवन अभिशाप बन कर रह जायेगा , विकास ठहर सा जायेगा। हमारा मन हमारा शत्रु नही है बस उसे अपनी मन मर्जी करने से रोकने की आवश्यकता है हम अभ्यास और भौतिक वस्तुओं से वैराग्य भाव बढ़ाकर मन को मर्यादा में बांध सकते हैं अन्यथा जैसे - जैसे मन की इच्छाओं को पूर्ण करते जायेंगे वैसे-वैसे इच्छायें बढ़ती ही जायेगी, इसका कोई अन्त नही है। हमारा उद्वेश्य बस मर्यादा पूर्वक एकाग्रचित व शान्त भाव से सन्तुष्ट रहने की साधना करके आत्मा को परमात्मा में लीन करना होना चाहिये ।
 अन्त में कहना चाहूँगा कि मन चंचल है और होना भी चाहिए बस इसे समझने की जरूरत है। आपका क्या उत्तर है मुझे बता सकें तो शुक्र्र्र्रिया लेकिन अपने मन को जरूर बता दें कि आप क्या सोचते हैं ?

Wednesday, December 14, 2011

क्रिसमस उपहार

बच्चे खुश तो सारा जहाँ खुश। ये ही बात सोच कर मैने भी आने वाली क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बच्चों को संता क्लाउॅज की तरह उपहार
देकर खुशी बांटने की सोचा और एक दिन पूर्व ही अपनी जमा पूंजी से ढेर सारे खिलौने { कुछ चाबी वाले, स्टार, गुड़ियाएँ, गुल्लक, टाफियाँ, और अन्य उपहार } जिन्हें में बचपन में खूब पसंद करता था खरीद लिये। एक अच्छी सी संता क्लाउॅज की डैªस भी लाकर रख ली और बेसब्री से क्रिसमस की पूर्व संध्या की इंतजारी करने लगा। 24 दिसम्बर की शाम का अंघेरा होते ही खुशी खुशी तैयार होकर उपहार का झोला लेकर बच्चों को खुशियाँ बांटने निकल पड़ा ।
           कुछ ही दूर चला था कि एक सोसाइटी के कम्पाउंड में नई नई डैªसें पहने बच्चे दिख गये । मैं तुरन्त उनके पास पहुँच गया मुझे देखते ही सभी खुश हो गये मुझे लगा जैसे मेरा सपना सच हो गया है। मैने सभी बच्चों को प्यार से दुलार किया और सबसे छोटे बच्चे को सबसे पहले एक चाबी वाला खिलौना निकाल कर दिया । उसने मेरी ओर अचरज से देखा और उस खिलौने में चाबी भर कर जमीन पर चलाया। अभी उसकी चाबी पूरी खत्म भी नही हूई थी कि बच्चे ने उसे उठाते हुए मुझे वापस देकर कहा मुझे ये नही चाहिये मुझे तो कम्प्यूटराइज्ड गेम या रिमोट वाला खिलौना ही चाहिये जिसे दिखा कर मैं अपने स्कूल के साथियों पर रौब जमा सकूं। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया था क्योकि मैं तो अपने जमाने के खिलौने लाया था अतः मैंे उसकी बात को अनसुना करते हुए तुरन्त बच्चो का घ्यान बाँटने के लिये उन्हें टाफियाँ निकाल कर देने लगा। लेकिन ये क्या ये बच्चे मुझ से टाफियाँ भी नही ले रहे हैं, कारण पुछने पर मालूम चला की इन्हें ये साघारण टाफियाँ पसंद ही नही थी इन्हें तो विदेशी ब्राउन चाकलेट या कॉफी चाकलेट ही पसंद थी।
           मैं बातों में उनको उलछा कर बार बार उन्हें टॉफी देने की कोशिश करने लगा । लेकिन आधुनिक बच्चे अब तक समझ चुके थे और मेरे से दूर जाने लगे। बच्चों के मुझ में कम होते आकर्षण को भांप कर मैं भी वहाँ से निकल कर एक साधारण से चाल में खेल रहे बच्चों के पास आ गया। जहाँ मुझे देखते ही सभी  बच्चे खुशी से चिल्लाने लगे। मेरी दी हुई टाफियाँ सभी बच्चों सभी ने तुरन्त खा ली और उपहारों के झोले को ललचाई निगाहों से देखने लगे , मैने भी बिना देर लगाये सारा झोला ही उनके सामने खोल दिया। सभी उसमें से पसंद करके खिलौने उठाने लगे लेकिन जल्दी ही उनका उत्साह भी ठंडा पड गया, मैने कारण पता किया तो मालूम चला की आजकल बाजार में आकर्षक और सस्ते चीनी खिलौने आ गये हैं इस लिये मेरे लाये पारंपरिक खिलौने इन्हें पसन्द नही आ रहे हैं। एक छोटे बच्चे को जब मैने एक गुड़िया देनी चाही तो उसने बडे़ अनमने भाव से वह गुड़िया ली। मैने उससे पूछ ही लिया कि पसंद नही आई क्या ? तो उसने कूछ सकुचाते हुए कहा कि मुझे तो पिस्तोल, टैंक या स्टेनगन वाला खिलौना चाहिये था। जिससे मैं अपने साथियों को डरा सकूं ।
           मेरे दिल में अब वो उत्साह नही बचा था और मुझे यह बात भी समझ में आ गई थी, की क्यों संता क्लाउॅज रात के अंधेरे में बच्चों को उपहार दे जाते हैं । शायद उन्हें आजकल के हाई प्रोफाइल बच्चों की पसंद मालूम है। मैने भी मन ही मन अगली बार से ऐसे ही मन पसन्द उपहार देने की सोचते हुए घर की ओर प्रस्थान किया।

Sunday, December 11, 2011

वर्तमान

आज अपने मित्र की असामयिक मृत्यु के समाचार ने मेरा मन अन्दर से व्याकुल कर दिया। उसकी कही ये बातें कि बस थो़ड़ा समय ओर निकल जाये फिर चिन्ता नहीं क्योकि मेरा भविष्य बहुत अच्छा होगा, मुझे लगा कि मैं भी तो ऐसे ही सोचता हॅूं ओर मैं ही क्या प्रत्येक इन्सान ऐसे ही सोचता है। तो क्या हमारी वर्तमान के प्रति यह सोच सहीं है ? क्या ऐसे सोचते सोचते हम अच्छे की इन्तजार मैं अचानक चले नहीं जाते? क्या यही हमारे जीवन की सच्चाई है।
मैने अपना पूर्व जन्म तो देखा नही कि मैं किस योनी में था मानव भी था या फिर कोई अन्य प्राणी ? उस योनी मेैं मैंने अपना जीवन कैसे बिताया ? खैर छोड़िये क्या फायदा इस पूर्व जन्म की चर्चा से। हां मुझे यह मालूम है कि इस जन्म  मेैं ईष्वर ने मुझे पूर्व जन्म में किये मेरे अच्छे कर्मो की बदोलत श्रेष्ठ मानव योनी प्रदान की है। ओर इस योनी में बिताए भूतकाल को मैं भली भंाति जानता हॅू।
लेकिन अब यह प्रष्न मुझे बैचेन करने लगा कि मेरा भविष्य कैसा होगा ? क्या मुझे अपनी जीवन  षैली पर पुनः विचार करना चाहिए ? यदि इन्सान को उसका भविष्य देखने कि क्षमता ईष्वर द्धारा प्रदान कर दी जाती तो षायद जीवन की परिभाषाएं ही बदल जाती । हम अपने जीवन को अपनी मृत्यु तक की योजनाओं मे सीमित कर लेते और विकास का पहिया ही थम सा जाता।
अरे मैने भी आपको किस भूत-भविष्य काल में उलझा दिया। भूत काल तो मर चुका है । और भविष्य काल अभी पैदा ही नहीं हुआ हैं। बस हमें तो जो समय अभी चल रहा है। और जिसकी गतिविधियां हम महसूस कर रहें हैं। अर्थात एकमात्र काल जो अभी जीवित है-       ‘‘ वर्तमान काल ‘‘उसको सुन्दर ओर सुखी बनाने के बारे में प्रयत्न करने चाहिए ।
आज हम सभी अपने भूत भविष्य में ही उलझ कर रह गए है। या तो भूत काल में बिताए समय को लेकर दुखी होते रहते हैं या सुनहरा भविष्य बनाने के चक्कर में अपने आप के खर्चो में आवष्यकता से अधिक कटौती कर के एवं अधिक धन कमा लेने की लालसा में अपनी इच्छाओं का गला धोंटते रहते हैं । ओर सुनहरे भविष्य की कोरी कल्पनाओं के स्वप्न देखते रहते हैं।
लेकिन जरा सोचिए कि क्या आपका भविष्य कभी मूर्त रूप ले पायेगा या उससे पहले ही ईष्वर को आपकी आवष्यकता पड़ जायेगी ओर आपको जाना ही पड़ेगा। आप ईष्वर से यह तो नहीं कह पायेगें कि मैंने अभी अपना भविष्य का सुख भोगा ही नहीं है। अतः कुछ मोहलत चाहिए।
मेरे कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं हैं कि आप अपने भविष्य की योजना ना बनाएं । आपको कम से कम 30-40 वर्ष आगे की सोच तो रखनी ही पड़ेगी। लेकिन उसके लिए आपको एक सीमा निर्घारित करनी ही होगी जिससे आप उज्जवल भविष्य के साथ साथ वर्तमान का पूरा आनन्द उठा सकें । याद रखे कि सफलता के मार्ग पर चलने वाले सदा वर्तमान में जीते हैं। और प्रतिदिन का कार्य भलीभांति पूर्ण करने के साथ प्रति क्षण बिताए हर एक पल में खुषी ढूॅंढ लेते हैं।
वर्तमान काल में जीने से जो चीज हमें सबसे ज्यादा रोकती है वह है हमारी चिन्ता या अनावष्यक डर जो हमें प्रति क्षण सताता रहता हैं । और हम प्रत्येक क्षण का पूर्ण आनन्द नहीं उठा पाते है। आपको मालूम होना चाहिए कि यह अनावष्यक भय या चिन्ता हमारे षरीर में एक रसायन स्त्रावित करता हैं जो हमारे मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता हैं।अतः चिन्ता , भय से बचने की कोषिष करें  इससे पूर्ण रूप से तो किसी इंसान का बचना कठीन है लेकिन कोषिष करने वालों को ही कामयाबी हासिल होती है।
कुछ छोटी-2 बातें व टिप्स हैं जिससे हम अनावष्यक भय या चिन्ता से बच सकते है।
ऽ अपनी सोच सकारात्मक बनाये।
ऽ दूसरों को क्षमा  करने की आदत बनाये।
ऽ अच्छे मित्रो सें मेलजोल बनाकर रखें।
ऽ दूसरों की बूराई करने से बचें।
ऽ भौतिक साधनों के साथ साथ प्रतिदिन कुछ ब्रह्म ज्ञान अपने में जोड़े।
ऽ अपनी वर्तमान स्थिति के लिए माता पिता के साथ साथ ईंष्वर को प्रतिदिन धन्यवाद दें।
ऽ जो आपके पास अभी है उसमें खुषी तलाषे ।
         इस विषय का कोई छौर नही है अतः में अपनी लेखनी को इन अन्तिम पंक्तियों के साथ विराम देना चाहूंगा कि इस क्षण भंगूर जीवन को यर्थात में जीते हुये अपनी क्षमता से अधिक महत्वाकांक्षा पर अंकुष लगायें और वर्तमान के प्रत्येक क्षण को जी भर के जीयें क्योंकि वास्तव में केवल यही आपका अपना है भविष्य ना किसी का हुआ और ना होगा। साथ ही अपने कार्य और ईष्वर भक्ति में इतने वयस्त हो जायें की अन्य विचारों के लिए समय ही ना बचें ’’वर्तमान सुखी तो सब सुखी’’

Wednesday, December 07, 2011

प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद

प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद के जन्मदिन 3 दिसम्बर को सम्पूर्ण राष्ट्र उनकी 127 वीं जयंती मना रहा है । सौम्य व सदा मुस्कराने वाले डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद अपने त्याग, देष भक्ति, सादगी, दयालु व निर्मल स्वभाव  के लिये जाने जाते हैं एवं उनकी बेदाग राजनीतिक छवि व आदर्षो का उदाहरण आज के राजनीतिज्ञो में इतने वर्षों बाद भी दिया जाता है। डॉ0 साहब ने आजादी के बाद देष की तूफानों से घिरी कष्ती को 12 वर्षो तक बिना जाति, वणर्, वर्ग, धर्म का भेद किये जिम्मेदारी पूर्वक संभाल कर राष्ट्रपति के रूप में बेहतर राष्ट्र निर्माण के लिए कार्य करके जनता में विष्वास बनाया। वे एक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ के साथ साथ षिक्षाविद व वकील भी थे। 
          डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 03-12-1884 को बिहार के एक छोटे से गाँव जीरादेई में एक संयुक्त कायस्थ परिवार में हुआ था । पिता श्री महावीर सहाय फारसी व संस्कृत के विद्वान तथा माता श्रीमती कमलेष्वरी देवी धार्मिक महिला थी । एक मौलवी जी से पारसी और सामान्य षिक्षा के बाद छपरा के एक स्कूल में दाखिला लिया, कलकत्ता विष्वविघालय से एम ए तक पढ़ाई करके प्रोफेसर बने। फिर कलकत्ता प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1915 में कानून की पढ़ाई में मास्टर डिग्री के लिए विषिष्टता हासिल कर गोल्ड मैडल प्राप्त किया एवं कानून में डॉक्टरेट की उपाघि हासिल करके डॉक्टर कहलाये ।
        युवा अवस्था में उन्होंने समाज सेवा के लिये भारतीय कांग्रेस कमेटी की सदस्यता ली। देष में उस समय चल रहे स्वदेषी आंदोलन, असहयोग आंदोलन व चम्पारण आंदोलन से वे गांघी जी के नजदीक आ गये। समर्पित कार्यकर्ता व विलक्षण नेतृत्व क्षमता के कारण उन्हें भारतीय कांग्रेस कमेटी का एक से अघिक बार अघ्यक्ष बनाया गया। 1962 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ” भारत रत्न “ प्रदान किया गया । राजनीति से सन्यास लेने के बाद वे 28-2-1963 को परलोक गमन कर गये ।
            3 दिसम्बर को हमें और विषेष रूप से युवाओं को समाज और देष की एकता के लिये प्रण लेकर उन्हें सच्ची श्रद्वांजली देनी होगी।
                      

सुख की अनुभूति

‘‘ किसी इन्सान के भीतर महसूस किया जानेवाला वह परंम आनन्द जिसे मात्र अनुभव किया जा सकता है और जो समय व परिस्थिति के अनुसार क्षणिक परिवर्तित होता रहता है ‘‘

आज अवकाष के दिन प्रातः धर्म पत्नी के साथ चाय की चुस्कियॉ लेते हुए मौसम का आनन्द ले रहा था कि मूड अच्छा जानकर उसने बोला सुनों जी एक ऐसा बडा घर बनाओं जिसके चारों तरफ हरियाली हो तो मै सुखी हो जाऊं ।
      इस छोटी सी बात को बोल कर वह तो कुछ देर में भूल गई लेकिन मेरा मन उसमें उलझ कर रह गया । मै सोचने लगा कि यह सुख है क्या ?
 मुझे लगा कि क्यों आज अधिकाषं जन मानस इस भाग दौड भरी जिन्दगी में पैसा, भौतिक सुख सुविधाएंॅ व चकाचौध कर देने वाले वैभव को प्राप्त करने के लिए एक अन्धाधुन्ध दौड लगा रहा है क्या यही सच्चा सुख है या सफलता प्राप्त करना ही सच्चा सुख है ? लेकिन यह देखने में आया है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति सुखी नहीं होता तो फिर सच्चा सुख क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ।
 हम सुख को इस प्रकार परिभाषित कर सकते है ‘‘ किसी इन्सान के भीतर महसूस किया जानेवाला वह परंम आनन्द जिसे मात्र अनुभव किया जा सकता है और जो समय व परिस्थिति के अनुसार क्षणिक परिवर्तित होता रहता है ‘‘ । क्योंकि यह सर्व विख्यात है कि ‘‘पहला सुख निरोगी काया‘‘ तो यह सर्वथा ठीक ही है । क्योकि शरीर निरोग होगा तभी हम परम आनन्द का अनुभव कर सकते है । फिर भी हम अपनी इच्छाओं को सीमित रखते हुए कुछ छोटे छोटे उपाय करें तो सुख का अनुभव जरूर मिलता है ।
(1) यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक इन्सान के अपने कर्तव्य व मर्यादा है । अतः अपने बनाये नियम कायदों को किसी पर थोपने की कोषिष नहीं करनी चाहिए । आप परिवार में अपने नियमों के फायदें नुकसान जरूर समझा दें ।
(2) प्रतिदिन कोई न कोई समस्या हमारे जीवन में आती है उसका शोर्टकट समाधान न निकाले क्योंकि पूर्व में किये गये शोर्ट कट और बिना सोचे समाधान के कारण ही 90 प्रतिषत समस्याऐं पैदा होती है ।
(3) अपने सामर्थ्य व पसंद के अनुसार व्यस्त रहने की कोषिष करें क्योंकि अथाह धन होने के बावजूद कर्महीन व निठ्ल्ले व्यक्ति को आत्म सुख नहीं मिलता है ।
(4) परिस्थितियोंॅ सदा बदलती रहती है अतः अपने आर्थिक व भौतिक साधनों की तुलना करने से बचे । इन्सान कर्म से महान होता है ना कि धन से ।
(5) सदैव वर्तमान में जीते हुए आषावादी व प्रसन्न रहने की कोषिष करनी चाहिए क्योंकि दूसरों की बुराई करने और अपना रोना रोने से आप सहानुभुति प्राप्त कर सकते है किन्तु सुख प्राप्त नहीं कर सकते ।
(6) आपके द्वारा गलती होने पर क्षमा मांगना सीखे और अनजाने में किसी व्यक्ति द्वारा की गयी गलती केा क्षमा करना सीखें किन्तु बार बार की गयी गलती पर दंण्ड अवष्यदें ।
(7) सदैव दूसरों का दुखःबांटने की कोषिष करें इससे 100 प्रतिषत आत्म सुख का अनुभव होगा ।
(8) अपने कर्म को ईमानदारी निष्ठा लगन के साथ करें यह आपको आने वाले समय में धन यष और स्वास्थ्य देगा । जिससे आप सम्पन्न सफल और सुखी बनेगें ।
(9) भौतिक साधन जीवन को सरल बना सकते है परन्तु सुखी नहीं । अतः जहोंॅ तक संभव हो सन्तुष्ट रहने की और वर्तमान में जीने की कोषिष करें ।
(10)  जैसी हमारी कामना होती है वैसी ही हमारी इच्छा शक्ति होती है उसी के अनुसार हम कर्म करते है एवं कर्म के अनुसार हमारी नियति बन जाती है अतः अपनी इच्छाओं/कामनाओं को सही दिषा में आगे बढायें ।
(11) प्रतिदिन तीनों प्रहर शान्त बैठकर दो मिनट स्वयं के कार्यो का आंकलन जरूर करें ।
       अन्त में कहना चाहूंगा कि गीता का यह सार स्मरण रखें कि जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा एवं कठोर परिश्रम का प्रतिफल ही सच्चा सुख है ।       

Monday, December 05, 2011

बुजुर्ग हमारी धरोहर

आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को भगवान तो क्या, इंसान का दर्जा भी नही दिया जा रहा है। किसी जमाने में जिनकी आज्ञा के बगैर घर का कोई कार्य और निर्णय नही होता था। 

   
      मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः - इस पंक्ति को बोलते हुए हमारा शीष श्रद्धा से झुक जाता है और सीना गर्व से तन जाता है । यह पंक्ति सच भी है जिस प्रकार ईश्वर अदृश्य रहकर हमारे माता पिता की भूमिका निभाता है उसी प्रकार माता पिता हमारे दृश्य, साक्षात ईश्वर है। इसीलिए तो भगवान गणेश ने ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने की बजाय अपने माता पिता शिव- पार्वती की परिक्रमा करके प्रथम पूज्य होने का अधिकार हांसिल कर लिया था, किन्तु आज के इस भौतिक वाद (कलयुग) में बढ़ते एकल परिवार के सिद्धान्त तथा आने वाली पीढ़ी की सोच में परिवर्तन के चलते ऐसा देखने को नही मिल रहा है। कुछ सुसंस्कारित परिवारों को छोड़ दें तो आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को भगवान तो क्या, इंसान का दर्जा भी नही दिया जा रहा है। किसी जमाने में जिनकी आज्ञा के बगैर घर का कोई कार्य और निर्णय नही होता था। जो परिवार में सर्वोपरि थे। और परिवार की शान समझे जाते थे आज उपेक्षित, बेसहारा और दयनीय जीवन जीने को मजबूर नजर आ रहे है यहां तक कि तथा कथित पढ़े लिखे लोग जो अपने आप को आधुनिक मानते है , अपने आपको परिवार की सीमाओं में बंधा हुआ स्वीकार नही करते हैं और सीमाऐं तोड़ने के कारण पशुवत व्यवहार करना सीख गये हैं वे अपने माता पिता व अन्य बुजुर्गों को ’’रूढ़ीवादी’’, ’’सनके हुये’’ तथा ’’पागल हो गये ये तो’’ तक का सम्बोधन देने लगे है।
     क्या आप नही जानते मां बाप ने आपके लिए क्या-क्या किया है या जानते हुये भी अनजान बनना चाहते हैं ? मैं आपकी याददाष्त इस लेख के माध्यम से लौटाने की कोशिश कर रहा हॅंू।
     वो आपकी मां ही है जिसने नौ माह तक अपने खून के एक एक कतरे को अपने शरीर से अलग करके आपका शरीर बनाया है और स्वयं गीले मे सोकर आपको सूखे में सुलाया है, इन्ही मां-बाप ने अपना खून पसीना एक करके आपको पढ़ाया-लिखाया, पालन-पोषण किया और आपकी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी सभी जरूरतों को अपनी खुशियों, अरमानों का गला घोंट कर पूरा किया है। कुछ मां-बाप तो अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के खातिर अपने भोजन खर्च से कटौती कर करके उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को विदेश भेजते रहे। उन्हंे नही मालूम था कि बच्चे अच्छा कैरियर हासिल करने के बाद उनके पास तक नही आना चाहंेगे। वे मां-बाप तो अपना यह दर्द किसी को बता भी नही पाते। यह आपके पिता ही है जिन्हांेने अपनी पैसा-पैसा करके जोड़ी जमा पूंजी और भविष्य निधि आपके मात्र एक बार कहने पर आप पर खर्च कर दी। और आज स्वयं पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गये। तिनका-तिनका जोड़कर आपके लिए आशियाना बनाया और आज आप नये आशियाने के लिऐ उन पर भावनाओं से लबालेज उनके आशियाने को बेच देने का दवाब बना रहे है, उनके तैयार नही होने पर उन्हे अकेला छोड़कर अपनी इच्छा की जगह जाकर उन्हे दण्ड दे रहे है। आपने कभी सोचा है कि मां-बाप ने यह सब क्यों किया।
    आपको मालूम होना चाहिए कि वे केवल इसी झूठी आशा के सहारेे यह सब करते रहे कि आप बड़े हांेगे कामयाब होगें और उन्हें सुख देंगे और आपकी कामयाबी पर वो इठलाते फिरेंगे। मां-बाप जो मुकाम स्वयं हासिल नही कर पाये उन्हें आपके माध्यम से पूरा करना चाहते है लेकिन बच्चे उनका यह सपना चूर-चूर कर देते हैं।
    कुछ परिवारों में बुजुर्गों को ना तो देवता समझा जाता है और ना ही इन्सानों जैसा व्यवहार किया जाता है बस बुजुर्ग उपेक्षित, बेसहारा और एकान्तवास में रहकर ईश्वर से अपने बूलावे का इन्तजार मात्र करते रहते हैं।
     आप सोच रहे होगे कि हम तो ऐसा नही करते लेकिन मैं आपको बताना चाहुंगा कि अनजाने में आपसे ऐसा हो जाता है जिससे मां-बाप का दिल दुख जाता है। नीचे कुछ पंक्तियों मे ऐसी ही बातें मैं आपके सामने रख रहा हूॅ।
    आज हम अपने आसपास किसी ना किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष पर अत्याचार होते देखकर, “उनका निजी मामला है “ ऐसा कहकर क्या अपनी मौन स्वीकृति नही दे रहे है ? आज कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है यह अच्छी बात है लेकिन इसका तात्पर्य यह नही है कि बुजुर्ग मां-बाप आपके मात्र चौकीदार और आया बनकर रह जायें। बुजुर्ग महिला अपने पोते-पोतियों की दिनभर सेवा करे, शाम को बेटे-बहू के ऑफिस से आने पर उनकी सेवा करे। क्या इसी दिन के लिए पढ़ी-लिखी कामकाजी लड़की को वह अपनी बहू बनाती है। लेकिन क्या करे मां का बड़ा दिल वाला तमगा जो उसने लगा रखा है सभी दर्द को हॅसते-हॅसते सह लेती है। कभी उसके दिल के कोने में झांक कर देखों छिपा हुआ दर्द नजर आ जायेगा। यदि आप अपना कर्ज चुकाना चाहते है तो दिल के उस कोने का दर्द अपने प्यार से मिटा दो।
    आज अधिकांष परिवारों में युवा अपने कार्यों में वयस्त रह कर समय का एक कृत्रिम अभाव बना लेते है तथा घर के कार्य जैसे - बच्चों को स्कूल छोड़ना-लाना, टेलिफोन, बिजली, पानी के बिल जमा करवाना, घर का सामान लाना, खराब पड़े उपकरणों को ठीक करवाना, समारोह आदि में जाना, अपने बुजुर्ग माता-पिता से ही करवाते है, बुजुर्ग महिला पर तो इसके अलावा रसोई व घर की साफ सफाई का कार्य अतिरिक्त होता है जो उसे इच्छा व शारीरिक क्षमता ना होते हुये भी करना पड़ता है।
        यदि आपके परिवार में ऊपर लिखी बातों में से कोई बात मेल नही कर रही है तो आप धन्यवाद के पात्र है कि आपका परिवार एक सुसंस्कारित व आदर्श परिवार की श्रेणी में आता है। आपके घर में साक्षात ईश्वर निवास कर रहे हैं एवं मेरा आपको शत्-शत् नमन है।
    युवा पीढ़ी को चाहिए कि वो समय रहते हुये बुजुर्गों कि अहमियत को समझ जायें। क्योंकि एकल परिवार में बच्चे को लाड-प्यार तो आप बहुत अधिक करते हैं, किन्तु दादा-दादी से प्राप्त आशीर्वाद, संस्कार, स्पर्श सुख, अपनापन, व्यवहारिकता उसे नहीं मिल पाती हैं एवं वे दादी के छोटे-छोटे किन्तु बेहद कारगर नुस्खों से वंचित रह जाते है। आपके बच्चों में संस्कार और व्यवहारिकता दादा-दादी से ही प्राप्त होगी जिससे वे शारीरिक और मानसिक रूप से अधिक सक्षम होकर जीवन में चुनौतियों का सही ढंग से मुकाबला करने में सक्षम बनते हैं। संयुक्त परिवार और एकल परिवार के बच्चों में अन्तर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।   
युवा पीढ़ी निम्न बातों को ध्यान में रखकर अपने बुजुर्गों को और अघिक सम्मान दे सकती है।
बुजुर्गों को प्रतिदिन थोड़ा समय अवश्य दें यदि हो सके तो शाम का भोजन उनके साथ करें।
अवकाश के दिन उनसे अपने बचपन की बातें पूछे, पुराने फोटोग्राफ दिखायें और उन्हे अनुभव बताने का मौका दें।
छोटी-छोटी बातों पर भी उनसे राय जरूर लें । यदि आप सहमत ना हो तो अपनी राय उन्हे समझायें वे आपकी राय को अपनी राय बना लेगें।
अपने बुजुर्गोंं के जन्मदिन पर उनके रोज मर्रा की छोटी-छोटी वस्तुएॅ उन्हें भेंट करें।
मां-बाप आपसे बहुमूल्य तोहफे नही चाहिए। वे मात्र आपमें  उनके सिखाये संस्कारों को फलिभूत होते देखने की आशा करते हैंें
     आपको ध्यान रखना चाहिए समय बहुत बलवान होता है जैसा बर्ताव आप बुढापे में स्वयं के साथ चाहते है वैसा ही आज उनके साथ करें क्योंकि आप जो बो रहे है वो ही कल आपको काटना है। बुजुर्गों के बरगद रूपी अनुभवों की छांया सदैव आपको परेशानियों, कटुअनुभवों वाली तेज धूप से बचा कर शांन्त ओर शीतल मन से जीवन जीने का आनन्द देती है।
    अब मैं मेरे द्वारा लिखी जाने वाली किसी भी गलती या गुस्ताखी के लिये बुजुर्गों से क्षमा मांगते हुये अपनी लेखनी के माध्यम से बुजुर्गों से कुछ कहना चाहूॅगा।
    बुजुर्गों और यूवा पीढ़ी के सोच में अन्तर तथा युवा पीढ़ी के पश्चिमी संस्कृति की ओर झुकाव तथा बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण टकराव पैदा हो जाता है। मेरा कहना है कि बुजुर्ग ऐसी विपरीत परिस्थितियों में झल्लायें नही और धैर्य पूर्वक समस्याओं का सामना करें।
यदि युवा पीढ़ी नही चाहती तो नसीहत ना दें। उन्हे अपने हाल पर छोड़ देें तथा स्वयं अपनी धर्मपत्नी के साथ पसन्द के कार्य जैसे- पूजा-पाठ, समाजसेवा, गार्डनिंग, लेखन, चित्रकारी, संगीत आदि में वयस्त हो जायें।
अपने बच्चों से ऐसे प्रश्न पूछने से बचें जिनका उत्तर वे आपको नही देना चाहते।
परिवार में बिना मांगे कभी अपनी राय ना दें । आप तो अपने अनुभवों से बच्चों की राह आसान बनाना चाहते हैं लेकिन बच्चे इसे अपने उपर आपके विचार थोपना समझते हैं।
सभी परिवार के सदस्यों के साथ समान व्यवहार रखें व अपनी बातों में पारदर्शिता रखें।
परिवार के सभी सदस्यों पर अपनी पैनी निगाह रखें किन्तु बच्चों को ऐसा प्रतीत ना होने दे कि वे पिंजरे में कैद है केवल आवश्यकता से अधिक स्वछन्दता दिखने पर ही अंकुश लगाये।
अपनी छवी ऐसी बनाये कि आपके निर्णयों पर परिवार में सर्व सम्मति बन सके।
 आप अपने पूर्व में रहे कार्यक्षेत्र के अनुसार समाज में भागीदारी निभाकर सम्मान पा सकते है।
    अन्त में लिखना चाहूॅगा कि यह शास्वत् सत्य है कि जिस घर में माता-पिता व अन्य बुजुर्गों का सम्मान नही होता वह घर कभी पनपता नही है और वहां कभी बरकत नही हो सकती, आज समाज चुप जरूर है परन्तु उसकी निगाहें बहुत बड़ी है। आपका सम्मान व प्रतिष्ठा घर के बुजुर्गों की स्थिति पर ही निर्भर करती है यदि आप माता-पिता का दिल नही दुखा रहे हैं तो घर में मन्दिर जैसा आनन्द महसूस करेंगे। आज आप खुषनसीब हैं, आप सच में धनवान हैं। कि आपके घर में बुजुर्ग हैं जिस दिन उन्हें ईश्वर ने बुला लिया आप कंगाल हो जायेंगे। आपके सिर पर से छाया हट जायेगी आपको चिलचिलाती धूप सहनी ही पड़ेगी। यह मेरा निजी अनुभव भी कहता है अतः पुनः युवा पीढ़ी से अपील है कि अपने जोश को बुजुर्गों के अनुभव से जोड़कर जीवन का सही मायने में लुफ्त उठायें वरना यह कहावत चरितार्थ हो जायेगी ’’अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चूग गयी खेत’’ और आपके हाथ खाली रह जायेंगे।