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Wednesday, August 08, 2012

मन का पंछी



जब इन्सान स्वयं को प्रकृति से बड़ा समझने की भूल करने लगता है तो प्रकृति नाराज होकर अपनी असीमित ताकत और श्रेष्ठता का अहसास बाढ़, आपदा, भूकम्प, आग आदि से करा कर मानव को उसकी हैसियत का बौनापन दिखा देती है। 




अवकाश का दिन ........ पिछले दो दिन से रिमझिम बरसते बादलों की सुखद फुहार ... मैं अपनी माँ की निशानी आराम कुर्सी पर झरोखेे में बैठा मौसम का आनन्द ले रहा हूँ मेरे हाथ की कलम मेरे मन के उदगारों को कागज पर उकेरने के लिए बेताब हो रही है, प्रफुल्लित चंचल मन इधर-उधर भटक रहा है।
    सच आज कितना खुशनुमा मौसम है, हल्की-हल्की रोशनी जो बार-बार दिन में भी रात होने का अहसास करा रही है। बीच-बीच में आते ठण्डी हवा के झौकों के साथ आती आड़ी-तिरछी बारीश की फुहारें मेरे बदन को कोमल स्पर्श का अहसास देकर मेरे शरीर के रोयें खड़े कर रही है । सच प्रकृति के इस रूप का आनन्द कलम से व्यक्त नही हो पा रहा है इसे तो मात्र महसूस ही किया जा सकता है। वातावरण में कहीं से आती मंद्धीम-मद्धीम संगीत लहरियां मौसम को और खुशनुमा बना रही है।
    प्रकृति को निहारती मेरी निगाहैं अचानक सामने रोशनदान पर चली जाती है जहां वर्षा से बचने के लिए एक कबूतर का जोड़ा व दो तीन चिड़ियाएं ठण्ड लगने के कारण पंख फुलायें बैठी है। शायद प्रकृति ने सर्दी से बचने का यही एक तरीका इन भोले पक्षियों को दिया हैं। मुझे अहसास हुआ कि शायद ये पक्षी बारिश के थमने का इन्तजार कर रहे हेैं। कबूतर और कबूतरी गर्दन को एक दूसरे के पास रखकर शायद आपस में एक दूसरे को सर्दी से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मानो कह रहे हेैं कि अभी वर्षा थम जायेगी थोड़ा हिम्मत रखो। कबूतर के जोड़े के इस प्रेम को देखकर यह यकीन हो रहा है कि वर्षा का मौसम सही में प्रेमियों का मौसम ही होता हैं। इसीलिए हमारी तप्ति धरती मां वर्षा के लिए इतना तरसती है। और जब वर्षा का धरती से मिलन होता है तो धरती पर मिलन की खुशी के विभिन्न रंग उभरने लगते हैं  चारों तरफ हरियाली ही हरियाली छाः जाती है जगह-जगह धरती की प्यास बुझाता पानी धरती मां की गोद में भर जाता है और धरती का सौन्दर्य पूर्ण यौवन के साथ बिखरने लगता है। प्रत्येक जीव के मन में प्रेम के अंकुर फूटने लगते है, सभी की मनः स्थिति प्रेम के कल्पना लोक में विचरने लगती है।
         प्रकृति का आनन्द लेते लेते मेरा ध्यान घर के बाहर लगे नीम के वृक्ष पर चला जाता है जो लगातार बारिश मे भीग रहा है। जाने क्यों प्रकृति ने पेड़ पौधों को एक ही जगह स्थिर रह कर अपना पूरा जीवन दूसरों की इच्छा से जीने के लिए मजबूर बनाया है। अतीत में जाकर मुझे याद आ रहा है जब मैं 1998 में यहां निवास करने के लिए आया था तब इसी सुहाने मौसम में बारिश की फुहांरोे के बीच ही मैने अनेक नव अंकुरित नीम के पोधे को स्टेडियम से लाकर यहाँ लगाया था। जो आज पूरे यौवन के साथ एक घना वृक्ष बन गया है। लेकिन आज इस पेड़ ने मुझे सोच में डाल दिया है और मैं निर्णय नही कर पा रहा हूँ कि मैने इसे यहां लगाकर सही किया या गलत ? शायद मेरे कारण ही आज यह पेड़ इच्छा ना होते हुये भी लगातार भीग रहा है इतना ही नही यह तो यहां खड़े-खड़े ही प्रकृति की सभी ऋतुओं को सहन कर रहा है इस पर कितने ही पक्षियों, कीटपतंगों, गिलहरियो आदि ने अपना हक जमा लिया है और यह पेड़ उन सभी को हंसते-हंसते आश्रय देकर उनके पितामह की भूमिका निभा रहा है, मुझे भी तो इसने कई बार तपती धूप में अपनी छांव से शीतलता देकर मेरे पिता की अपूर्णणीय कमी के अहसास को कुछ समय के लिए कम किया है ।
      काश मुझमें इतनी शक्ति होती कि मैं पेड़ से बाते करके यह पूछ पाता कि यह मेरे बारे मे क्या सोचता है और इसे यहां लगना था या नही ? इस वृक्ष के कोमल से तने को मैने प्रतिदिन अपनी उम्र की तरह बढते, मोटा और द्व्रढ़ होते देखा है लेकिन यह मुझसे कितना ज्यादा महान बन गया है जो सदैव सभी को मात्र देने की ही सोच रखता है काश में भी इस वृक्ष से जीवन जीने की कला सीख पाता।
अचानक बादलों की तेज गड़गडाहट व चमकती बिजली ने मेरा ध्यान वापस प्रकृति की तरफ मोड़ दिया। सच ही है कि प्रकृति में विभिन्न रंग भरे पड़े है इसके खुश होने पर जीवन प्रफुल्लित हो जाता है और जब इन्सान स्वयं को प्रकृति से बड़ा समझने की भूल करने लगता है तो प्रकृति नाराज होकर अपनी असीमित ताकत और श्रेष्ठता का अहसास बाढ़, आपदा, भूकम्प, आग आदि से करा कर मानव को उसकी हैसियत का बौनापन दिखा देती है।
      लेकिन आज तो मौसम ने मुझे अपार खुशियां देने की मानो ठान ली है। आज अवकाश नही होता तो मैं अपने ऑफिस के कम्प्यूटर में आंखे गड़ाये शब्दों और आंकडों के मायाजाल में उलझा होता और वर्षा का आभास भी केवल उसकी आवाज से ही कर पाता, इसलिए मैं इन सुखद पलों को जी भरकर अपने में समेट लेना चाहता हूॅ।
चाय की भीनी-भीनी खुशबू ने मेरे ख्यालों को फिर विराम लगाया। सामने श्रीमति जी चाय और गरमागरमा पकैेड़ियां कब रखकर चली गयी मालूम ही नही चला, खैर जल्दी से मैने एक पकौड़ी उठाकर मूंह की तरफ बढायी लेकिन सामने रोशनदान की तरफ नजर जाते ही भूखे बैठे पक्षियों को देखकर मेरा हाथ रूक गया। मन रूपी पंछी ने कहा कि इन पक्षियों ने भी तो वर्षा के कारण दाना नही चुगा है , सुबह इनके लिए डाला गया दाना बारिश की बून्दों से इधर-उधर फैल कर बिखर गया है। तो क्या में इतना स्वार्थी हूॅ कि बगैर इन पक्षियों को खिलाये स्वयं खाता रहूॅ। काफी देर सोचता रहा कि इन्हे कैसे दाना खिलाया जाये कुछ समझ नही आ रहा है मैने हाथ की पकौड़ी वापस प्लेट मे रख दी, चाय का प्याला उठा कर धीरे-धीरे चुस्कियां लेते हुये पक्षियों को दाना खिलाने की सोचने लगा, कलम रूक गयी। चंचल मन बैचेन होकर भटकने लगा।
अरे आप ने पकोड़ियां नही खायी, यह तो ठण्डी हो गयी, श्रीमति जी की इस आवाज ने मन रूपी पंछी को वापस अपने पिंजरे नुमा घर के झरोखेे में ला दिया। बस मैं पत्नि की तरफ शून्य भाव से बिना उत्तर दिये देखता रह गया। उत्तर भी देता तो क्या ? उसके प्रश्न वाचक भावों को पढ़ते हुये भी मेरे मन रूपी पंछी ने कोई भाव नही दर्शाया और अपने साथी पक्षियों को दाना खिलाने की ठान ली और मैं घर में रखे दाने को लेने अन्दर की तरफ तेजी से बढ़ गया। शायद ये पक्षी मेरा ही इन्तजार कर रहे हों।



Sunday, July 01, 2012

पर याद बहुत आयेगी

अवसर है पावन मंगल , हर शख्स है पुल्कित , मन कहता है कुछ बोलूं                                                      कुछ खास नही पर दिल खोलंू    मन कहता है कुछ बोलू                                                                                                                         

प्यारी हंसती इठलाती , बात बात पर शरमाती                                                                                           घर को स्वर्ग बनाती , बोलती और बुलवाती                                                                                          तन्हाई को दूर भगाती , सबके दिलों को छूती                                                                                             हम सब की आखें भिगोती , आज चली जायेगी                                                                                                           पर याद बहुत आयेगी , सच आज चली जायेगी     
पर याद बहुत आयेगी                                                                   

कितना खुश था उसको पाकर , नित नये सपने सजाकर                                                                            सब सपनो को सच वो करती , हम पर खुद न्यौछावर होती                                                                         दर्द छिपाकर मुस्कराती , पंख फैलाकर उड़ती उड़ती                                                                                   सब की आखों में मोती दे, आज चली जायेगी         
पर याद बहुत आयेगी                                                               

कहती है प्रकृति , पिता रहे गंभीर 
जज्बात अपने दबाये , नसीहतो का अंबार लगाये 
छिपाये आखों में नीर , दबाये प्यार की पीर 
प्रकृति ने मजबूर बनाया , सच बेटी मैं ऐसा नही 
जज्बात मेरे समझ पाना , जल्दी आना जाना          
याद बहुत आयेगी 

मैं भी माँ बनना चाहता हूँ , गले तुम्हारे लगना चाहता हूँ 
पापा याद बहुत आते हो , बोल ये सुनना चाहता हूँ 
सर मैं भी सहलाऊँगा ,क्या कभी माँ बन पाऊँगा 
हम सब की आखें भिगोती , आज चली जायेगी          
पर याद बहुत आयेगी 

माँ है तेरी भोली भाली , सबका कष्ट है हरने वाली 
नही संभल पायेगी , सच बिखर ही जायेगी 
 तू भी उसकी छाया बनती , नव परिवार में खुशियां देती 
सबके अरमां पूरे करती , आज चली जायेगी             
पर याद बहुत आयेगी 

 नही ये साघारण गुड़ियां , सच मे है गुणों की पुड़िया 
कन्या घर्म निभाना हैे ,हमसे दूर जाना हैे 
 नव परिवार के आँगन में ,खुशियों का अंबार लगाना हैे 
बेटी है आँखों का नूर , बस रहना नही हमसे दूर             
तुम याद बहुत आओगी 

खुशी के मोती छलकाएं , इसकी मैंे माफी चाहूँगा 
झूठ मानता था तन्हाई , मुझे सच का एहसास कराती  
सच आज चली जायेगी , पर याद बहुत आयेगी !!

Sunday, March 18, 2012

कष्ट

इंसान जीवन में जो पाना चाहे वह नही मिले या किसी से अपेक्षा करे और वह पुरी नही हो तो कष्ट का अहसास होता है। या किसी से अत्यघिक लगाव भी हमारे कष्ट का मुख्य कारण होता है।
आज किसी बात पर धर्मपत्नि से मनमुटाव होने पर मैं खामोश हो गया। इस खामोशी ने मुझे कष्ट का अहसास करा दिया और मैं मन ही मन एनालिसिस करने लगा कि हमें निराशावादी बनाने वाला ये कष्ट है क्या ? कहां से आया ? क्या मैं अकेला हूँ जिसे कष्ट है। मैने आँखें मूंद कर अपने आस पास के माहौल पर मन की दृष्टि डाली तो देखा कि यह तो आम बात है। आज प्रत्येक इंसान को दुसरे से कष्ट है। लगता है कि इस संसार में सभी को किसी ना किसी बात पर कष्ट है। जहां तक मैं सोच पाया उसके अनुसार इंसान जीवन में जो पाना चाहे वह नही मिले या किसी से अपेक्षा करे और वह पुरी नही हो तो कष्ट का अहसास होता है। या किसी से अत्यघिक लगाव भी हमारे कष्ट का मुख्य कारण होता है। अब सवाल ये आता है कि यह आया कहां से ? इसके लिये मैं वापस अपने अतीत पर चला जाता हूँ। जब मेरे जीवन में धर्मपत्नि नही थी तब क्या मुझे कष्ट नही था ? लेकिन वास्तव में ऐसा नही है उस समय तो धर्मपत्नि नही होना ही मेरा सबसे बड़ा कष्ट था। आज हमें अपने रोजगार से कष्ट है लेकिन यह रोजगार जब हमारे पास नही था तो हमें सबसे ज्यादा कष्ट इसके नही होने का ही था। यही बात हमारे रिश्तों और अन्य सभी बातों पर लागू होती है। और तो और विभिन्न प्रयत्न और नित्य ईश्वर की प्रार्थना करके प्राप्त की गई हमारी प्रिय संतानों से भी आज हमें कष्ट क्यों महसूस हो रहा है ? अरे मुझे ऐसा क्यों लगने लगा कि मैं शब्दों के मायाजाल में उलझ गया हूँ। देखिये मुझे शाब्दिक मायाजाल में उलझने का ही कष्ट होने लगा है। लेकिन मेरी इस बात से तो आपको सहमत होना ही पड़ेगा कि हमारी नित नई इच्छाएं और बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ ही आकार में बडी होेकर पूर्णता के फल में बदलती हैं और जैसे जैसे हम उनके पूर्ण होने का फल खाते रहते हैं हमारे पास उस फल से निकलने वाले कष्ट के बीज इकट्टठे होने लगते हैं और जब इन्ही कष्ट रूपी बीजों को अनुकूल वातावरण मिलता है तो ये पनपने लगते हैं। बस फिर क्या जैसे जैसे ये पौधे बडे़ होने लगेंगे वैसे वैसे हमारा कष्ट भी बढ़ता जायेगा। कहीं आप ये तो नही सोचने लगे की मैं आपको इच्छाएं और महत्वाकांक्षाए नही रखने की सलाह दे रहा हूँ। ऐसा नही है सफल और जीवंत जीवन जीने के लिए यह सब जरूरी है। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी सोच और महत्वाकांक्षाओं में तालमेल बैठा कर इन कष्ट रूपी पौघों को पनपने ही ना दें। आप यह अच्छी तरह से समझ लें कि कार्य और रिश्तो से आप बच नही सकते तो फिर उन्हें ढोने से अच्छा हैे कि उन्हें जी भर कर जियें । बात करते करते अब मुझे लगने लगा है यदि मैने अपनी बात को और आगे बढाया तो आपको कही पढने में कष्ट ना होने लगे इसलिए अन्त में कहना चाहूँगा कि आज के किसी कष्ट का निवारण ही कल हमारे नये कष्ट के जन्म का कारण होगा । कष्ट केवल महसूस किया जाता है। वास्तव में नहीं होता।