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Saturday, November 02, 2013

दीपोत्सव

            आखिर इंतजार खत्म हुआ ........ सच इस कार्तिक माह की अमावस्या ने कितना इंतजार करवाया, और स्वागत की तैयारियो ने तो मेरे बजट की गाड़ी पटरी से ही उतार दी, चलो कोई बात नही, असत्य पर सत्य की विजय और अंघकार पर उजाले की छटा बिखेरने वाले दीपोत्सव पर्व की खुशियों के लिये सब मंजूर है।

         आज किसी बच्चे को प्रातः जगाने के लिए आवाज नही लगानी पडी, घर में खुशनुमा माहौल है, लग रहा है कि घर के प्रत्येक कोने में साफ और सुन्दर दिखने की होड लगी है और किचन से आती पकवानों व मिठाइयों की खुशबू से तो ऐसा लग रहा है मानो किचन तो अपनी गृह स्वामिनी के साथ मिलकर शाम होने से पहले ही अपने आप को विजेता घोषित करवा लेना चाहती है ।

        मेरे हिस्से हर दिपावली की भाँति इस बार भी मन्दिर का कमरा और पूजा की तैयारियों का काम आया है, मैंने अपनी दोनों बेटियों के साथ मिलकर जल्दी से मन्दिर की सफाई करवाई और पूजा के प्रथम चरण मांडणा (रंगोली) के लिए पुत्रियों को लगाया । मांडणे मे स्वास्तिक बनाते हुए पुत्री ने पूछा, ये स्वास्तिक क्यों बनाते हैं ? जवाब में मैंने अपनी माँ से विरासत में मिले ज्ञान को उन्हे बताते हुए कहा कि हमें प्रत्येक शुभ कार्य की शुरुआत स्वास्तिक चिन्ह बनाकर करनी चाहिये क्योंकि यह सुख-सौभाग्य, मंगल कामना का द्योतक तथा सूर्य और भगवान विष्णु का प्रतीक माना जाता है, इसकी खडी व आडी रेखाओ से मिलकर बनने वाला +चिन्ह हमें चारो दिशाओं का प्रतीक है इसके मध्य भाग को भगवान विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रह्मा जी के चारों मुख एवं चारों भुजाओं को चारों वेद माना जाता है । स्वास्तिक चिन्ह देवताआंे का ओज (तेज) स्वरुप है जो हमारे जीवन में शुभता लाता है इसीलिए व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक भी मानते हैं ।

        पुत्रियाँ मन्दिर का मांडणा (रंगोली) पूरा कर बाहर देहरी  तथा आंगन मे मांडणा मांडणे चली गई थी और मैं इस त्यौहार के मुख्य पात्र मिट्टी के दीपकों को स्वच्छ पानी मे डालते हुए सोचने लगा कि इंसान और इस मिट्टी के दीपक में कितनी समानता होती है। इंसानो की ही तरह दीपक भी पंच तत्वों  ( मिट्टी , पानी, हवा, वातावरण, आग) से बना होता है । इसे बनाने वाला कुम्हार तालाब की मिट्टी को कूट-कूट कर, पानी मिलाकर लोना बनाता है फिर उसे चाक पर लगाकर अपने कुशल शिल्पी हाथों से दीपक के आकार का सृजन करता है फिर उसे सुखाकर धीमीं-धीमीं आग में पकाता है अर्थात् कुम्हार भी हमारी जन्मदात्री माँ की तरह दीपक की माँ बनकर उसे पूर्ण रुप प्रदान करता है । इस बातों को सोचते सोचते मेरा मन भावुक हो उठा , मेरे मन में दीपक क्या सोचते हैं या क्या बातें करते हैं यह सुनने की जिज्ञासा जाग गई और मैं मन ही मन लक्ष्मी माँ से इनसे बातें करने की शक्ति मांगने लगा............, 

         अरे, ये क्या मुझे तो सचमुच दीपकों के बीच चल रही बहस सुनाई देने लगी । एक नौजवान दीपक कुम्हार पर नाराज होते हुए कह रहा था मुझे दीपक नही बनना था मुझे तो एक फूलदान का आकार चाहिये था जिससे  मुझे कोई सुन्दर सी लड़की खरीद कर अपने घर ले जाती, मुझे संवारती, फूल लगाती और इठलाती हुई ड्राइंग रुम में सजाती । दूसरा दीपक उसकी बात काटते हुए बोला, ड्राइंग रुम मे रखे-रखे जब कई दिन तक तुम्हारे ऊपर से धूल नहीं हटायी जाती तो तुम्हे कैसा लगता , इसीलिये मुझे तो दुर्गा या गणपति की बड़ी मूर्ति बनना था जिससे लोग कई दिनो तक मेरे दर्शन करते, पूजा अर्चना करते फिर बैण्ड बाजों के साथ मेरा विसर्जन किया जाता । इसकी बात काटते हुए बीच में ही तीसरा दीपक बोल उठा आजकल इंसान ने शहरों में विसर्जन के लिए स्वच्छ तालाब या नदियां छोड़ी ही कहाँ हैं , यदि तुम्हारा विसर्जन करने की बजाय कम पानी में तुम्हें छोड दिया जाता तो तुम्हें कितना कष्ट होता, इसीलिए मेरी इच्छा तो ऐसा खिलौना बनना था जिससे मैं देव स्वरुप बच्चों के संग खेलता और उनका मन मोह लेता, वे मेरे सिर पर बने छेद से पैसे डालकर बचत करने की आदत भी सीखते । चौथे दीपक ने उसकी तरह मुँह बनाते हुए कहा, आजकल बाजार मे सस्ते रंग बिरंगे चीनी खिलौने आ गये हैं,  नये बच्चे तो मिट्टी के खिलौने जानते ही नही हैं जब तुम्हे कोई नही खरीदता तो तुम्हे बनाने वाले कुम्हार का दिल कितना दुखता, सोचा है तुमने, इसलिये मैं तो मिट्टी का वह तवा बनना चाहता था जिसे कोई गरीब आदमी खरीद कर जब घर ले जाता तो मुझे देखते ही उसकी पत्नि खुश हो जाती, मैं चूल्हे पर आग सहकर भी उसके परिवार को मुलायम रोटियां सेककर खिलाता तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।

         इसी बहस में अन्य दीपक भी बोलना चाह रहे थे लेकिन सबसे बडे दीपक ने बहस बढ़ते देख सबको समझाते हुऐ कहा, कोई भी आकार या रुप छोटा बड़ा नहीं होता है हमारे कर्म हमें छोटा या बड़ा बनाते हैं इसीलिए प्रकृति ने कुम्हार के माध्यम से तुम्हें जो स्वरुप प्रदान किया है वह सर्वश्रेष्ठ है। आज हम लक्ष्मी माँ के पूजन मे रखे जायेंगे ये हमारा सौभाग्य है। अभी जब हम बाती, तेल, वायु और अग्नि के साथ मिलकर एक सयुंक्त परिवार के रुप मे प्रकाश फैलायेंगे तो अज्ञानता का अंघेरा हमारे प्रकाश से डरकर दूर चला जायेगा जिससे हमारा यह जन्म सार्थक हो जायेगा। हमारा कर्म हमें आकार में छोटा होते हुए भी सभी से महान बना देगा ।
     
        सभी दीपकों की बहस सुनते सुनते मैंने उन्हें जल से निकाल कर उनमें बाती, तेल व प्रसाद आदि रखकर पूजा के लिये तैयार कर  दिया था और पटाखों की थैली से पटाखे निकाल कर बाहर रख रहा था कि अचानक चौंक कर रुक गया  मुझे उनकी भी बातें सुनाई दे रही थी उत्सुकता से मैं उनकी बहस सुनने लगा, एटम बम बडे गुरुर मे भरकर कह रहा था मैं सर्व शक्तिमान हूँ मुझे कमजोर दिल वाले तो चलाने की हिम्मत ही नहीं करते और जब मैं फूटता हूँ तो अच्छे- अच्छे काँप जाते हैं। उसकी बात खत्म होने से पहले ही अनार बीच में बोलने लगा, इसीलिए तुम्हें ज्यादा लोग पसन्द भी नही करते हैं मुझे देखो महिलाएँ, बच्चे और बडे़ सभी बड़े चाव से मेरी बाती में आग लगाते हैं और मैं जलते समय अपने अन्दर भरे रंग बिरंगे सितारांे को पूरे वेग से निकाल कर रात में भी दिन सा प्रकाश फैला देता हूँ । इस बहस में जमीन चक्कर कहाँ चुप रहने वाली थी वो भी बोलने लगी मेरी तरह रोशनी फैलाते हुए कोई नही नाच सकता, मौका देख बमों की लड़ी भी अपनी एकता के आगे कोई नही टिक सकने का पाठ पढ़ाते हुए इतराने लगी । 
      
         शायद बड़ी फूलझड़ी मेरी और घ्यान से देख रही थी इसीलिए उसने सभी को शांत करते हुए कहा,  तुम सभी अच्छे हो लेकिन कुछ बातें मुझसे सीखो, जैसे मैं बच्चों से बड़ो तक सभी को पसन्द आती हूँ , मेरे शरीर में घातु का तार होने पर भी मैं शिकायत नही करती, मुझे जलाने के लिये काफी धैर्य रखना पड़ता है अर्थात् मैं धैर्य शीलता का पाठ पढ़ाती हूँ , मैं जलने पर सितारों वाली रोशनी फैलाती हूँ । मेरे से अन्य पटाखो में आग लगाई जाती है अर्थात् मैं दूसरों के काम आती हूँ  , पूरी जलने के बाद भी मेरे तार को एक तरफ रखा जाता है जो मेरी शक्ति का प्रतीक है। मैं तुम सभी से बड़ी होने के नाते समझा रही हूँ हमें आपस में बहस नही करनी चाहिए क्योंकि हम सभी बारी बारी से जलकर ही सभी को पूर्ण आनन्द देते हैं ।

         पूजा की तैयारी हो गई क्या..............? नये कपडे़ पहन लो मुहूर्त का समय होने वाला है, इस आवाज ने मेरा घ्यान वापस तोड़ा, सभी जल्दी से तैयार हुए और सपरिवार लक्ष्मी जी, गणेश जी और सरस्वती माँ की पूजा की । सभी मंदिरों में दीपक रख कर आए फिर लक्ष्मी जी के सामने फूलझडियाँ जलाई और सभी बड़ों को प्रणाम कर बाकी पटाखे लेकर बाहर खुले में आ गये । सभी आने वालों को शुभ कामनाएँ देते हुए पटाखे जलाने लगे, आपको भी दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ, आपकी पूजा पूर्ण हो गई हो तो आ जाइये पटाखे जलाते हैं।

डी पी माथुर

Monday, October 14, 2013

एक प्रश्न

                    हमारे जीवन की तमाम उलझनों से हम प्रतिदिन रूबरू होते रहते हैं, हमारा प्रतिदिन का लगभग 98 प्रतिशत कार्यक्रम भी पूर्व में ही निर्धारित किया हुआ होता है । अर्थात यदि व्यस्क हैं तो प्रातःकाल जल्दी जागना, तैयार होना, ईश वन्दना फिर रोजगार के दस धन्टे और शाम को घर परिवार का मिलन, टी वी या अन्य साधन से कुछ मनोरंजन या सूचनाएं एकत्र कर अपने दिमाग में भरना, भोजन और फिर सो जाना । और यदि घरेलु महिला हैं तो इसी दिनचर्या में रोजगार वाले दस धन्टों में साफ सफाई, घर के अन्य सदस्यों के काम करना, टी वी ,मनोरंजन, आराम फिर भोजन बनाकर सभी के आने की प्रतिक्षा , भोजन और निंद्रा शामिल हो जाता है। कामकाजी महिलाओे पर दोनो तरह के कार्यो का दबाव अतिरिक्त आ जाता है।
                  नव युवक एवं विधार्थी इस जीवन चर्या को पाने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं और अधिकांश बुजुर्ग अपने जमाने के विभिन्न शौर्य किस्से सुनाने और नई पीढ़ी को कोसने में व्यस्त नजर आते हैं अर्थात गृहस्थ जीवन जीने वालों की बात की जायें तो 1-2 प्रतिशत बुजुर्गो को छोड़कर बाकी सभी इसी दिनचर्या चक्र में सम्पूर्ण जीवन बिताते नजर आते हैं।
                 इस भागमभाग के बीच हमारे पास इतना समय नही होता कि हम एक पल भी कुछ अलग तरीके से सोच सकें। जैसे, क्या हमारा इस धरती पर जन्म इसी दिनचर्या को जीने के लिए हुआ है ?, क्या हमारे अस्तित्व का मूल उद्देश्य यही सब करना है या था ? क्या हमने कभी इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश की है ?
                 जब विषम परिस्थितियों से हमारा सामना होता है तब जिन्हें हम अपने समझते हैं वो भी हमारा साथ छोड़ जाते हैं जीवन की तेज रफ्तार में समयाभाव के कारण जो प्रश्न हमें निरर्थक प्रतीत होते थे वो विषम परिस्थितियों से उपजे एकाकीपन में सार्थक प्रतीत होने लगते हैं। और हमें एक पल के लिए सोचने को मजबूर जरूर कर देते है यदि आपको इन प्रश्नों का उत्तर मालूम है तो आप भाग्यशाली हैं और यदि नही मालूम तो क्या आप जानना नही चाहते हैं कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है ? हमें इस जन्म में क्या करना चाहिए ? क्या हम जिस दिशा में चल रहे हैं वही हमारी सही राह है ?

                ये सभी प्रश्न पढ़ने में बहुत सहज और सरल प्रतीत होते हैं। और एक रफ्तार में हम बहुत सहजता से इन्हें पढ़ जाते हैं चूकिं समयाभाव या गृहस्थी के चक्र्र के कारण इनका उत्तर तुरन्त नही खोज पाते इसीलिए हम इस प्रकार के प्रश्नों को गृहस्थ जीवन के विपरीत मात्र साधु सन्तों के लिए या आध्यात्मिक व्यक्तियों के लिए मान कर पल्ला झाड़ने की कोशिश में लगे रहते है । अर्थात हम धर्म गुरूओं के उत्तर को ही अपना उत्तर भी मानने के लिए तैयार हैं या ऐसा समझ लें कि उनके जीवन के उद्देश्य को हम अपने जीवन का उद्देश्य मान लेने को तैयार हैं । तो क्या फिर हमें भी अपना जीवन उनकी तरह जीना चाहिए ?

               ऐसा शायद नही है , गृहस्थ जीवन छोड़कर अकेले रहने से आप चुनौतियों से दूर हो जायेंगे फिर आपका परिश्रम आधा ही रह जायेगा। वैसे भी गृहस्थ जीवन को सफलता पूर्वक निभाना सबसे कठिन साधना का प्रतीक माना गया है जो इससे विमुख होकर आध्यात्मिकता में लीन हो जाता है उसका जीवन के रहस्यों को समझने का अपना नजरिया बन जाता है और घर परिवार की जिम्मेदारियों को भलीभाँति निभाते हुए जीवन के रहस्यों को समझना उससे भी कठिन कार्य है ।

              हमारे आध्यात्मिक गुरूओं ने कहा है कि हमारी आत्मा ईश आत्मा का एक अंश है । जब ऐसा हम मानते हैं तो क्यों ना हमारे मन में उठते प्रत्येक प्रश्न का जवाब भी किसी और से पूछने की बजाय हमारे अन्दर विद्यमान उसी परम आत्मा के अंश से ही प्राप्त करें। ऐसा करने के लिए एक सरल सा तरीका है हमें स्वयं से प्रश्न पूछना होगा अर्थात प्रश्न कर्ता और जवाब देने वाले के बीच और कोई व्यवधान ना रहे ऐसी स्थिति बनानी होगी इसके लिए अपने मन को सांसारिक कर्तव्यों से कुछ पलों के लिये अलग करके एकान्त में बैठना होगा। न्याय के तराजु की तरह तटस्थ रहते हुए स्वयं अपने आप से ऊपर बताये गये प्रश्नों को पूरे मनोयोग से करना होगा।

             हो सकता है प्रथम बार में इनमें से किसी भी प्रश्न का जवाब ना मिलें। लेकिन यह निश्चित है कि यदि ऐसा लगातार कुछ दिन किया गया तो विभिन्न जवाब हमारे सामने आने लगेंगे उनमें से प्रत्येक जवाब का अपना एक वजूद होगा प्रत्येक जवाब किसी ना किसी दृष्टिकोण से सही प्रतित होगा। ऐसे ही कुछ विचार निम्न हैं जो जवाब के रूप में मन में आ सकते हैं।

             प्रथम - यह संसार व्युत्पत्ति और विनाश का एक क्रम है जो निरंतर चलता रहता है और अन्य जीवों की तरह ही इंसान भी उसी कडी के एक हिस्से के रूप में जन्म लेता और मरता है। हमारा जन्म हुआ और इसी प्रकार आगे भी जन्म होते रहेंगे अर्थात यह एक प्राकृतिक और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया मात्र ही है और चुकिं हमारा जन्म हुआ अतः हमें अपनी आजीविका चलाने के लिये हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाये उसी प्रकार निर्वाह करना होगा और इसी प्रकार की रोजगार पूरक शिक्षा हम लेते भी हैं।

             दूसरा- कारण आध्यात्मिक है अर्थात इस पूरी सृष्टि को चलाने वाली कोई देव शक्ति है जो विभिन्न जीव आत्माओं को उनके पिछले जन्म में किये कार्यो के आधार पर इस जन्म में शरीर देती है और जब एक निश्चित समय अवधि में हम कर्म कर लेते हैं तो पुनः हमें नये रूप में शरीर प्रदान कर दिया जाता है। अर्थात हमारे कार्य की जिम्मेदारी स्वेच्छा से निर्धारित नही होती है।

              तीसरा -कारण केवल आधुनिक सोच और वैज्ञानिकता से मिलता जुलता हमारे मन में सकता है कि हमारे माता पिता को हमारे जन्म से पूर्व यह नही मालूम था कि हम ही जन्म लेंगे और ना ही वो हमारा जन्म करवाने के लिये वचन बद्ध थे हमारा जन्म एक सांसारिक प्रक्रिया का परिणाम है इस कारण हमें इस इंसान रूपी शरीर को धारण करना पड़ा और हमारे माता पिता अपने अच्छे अनुभवों के अनुसार हमसे वो ही नियम अनुसरण करवाते हैं जिससे हमारा जीवन अच्छी प्रकार बीत जायें। इसे ही हम पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते जाते हैं अर्थात हम हमारे पालन कर्ता के अनुसार अपनी शिक्षा और रोजगार का निर्धारण करते हैं। पूर्व निर्धारित कोई भी लक्ष्य हमसे नही जुड़ा होता है  

               हम सभी की मानसिक दशा, अनुभव और ज्ञान के अनुसार और भी अनेक प्रकार के जवाब हमारे मन में आयेंगे और वो हमे सर्वाधिक उपयुक्त भी प्रतीत होंगे । और हो सकता है आप इस लेख को पढ़कर हँसते हुए कह जायें ”ये सब सोचना बकवास है इससे किसी का पेट नही भरता“, आपका यह सोचना किसी हद तक सही भी है लेकिन सत्यता इससे परे है ।

             दरअसल यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में प्रत्येक इंसान के स्वतंत्र विचार हो सकते हैं और इस तेज रफ्तार जीवन में स्वयं के लिये किसी के पास समय नही है आज हमने अपना सारा समय भौतिक सुख सुविधाओं की व्यवस्था करने या परिवार की आवश्यकताओं पर केन्द्रित कर रखा है। लेकिन यह भी सत्य है कि स्वयं से प्रश्न करने पर और कोई अहसास हो या ना हो पर यह अनुभूति तो जरूर होगी कि मैं सांसारिक रोजगार पूरक ज्ञान ही रखता हूँ एवं स्वयं की भाषा, शरीर, आगमन, निर्गम के बारे में अनपढ़ ही हूँ ।                                                                      
              इस विषय का कोई अन्त नही है और ना ही इस छोटे से लेख के माध्यम से आपसे चर्चा कि जा सकती है और जब तक किसी से सार्थक चर्चा ना हो निष्कर्ष निकलना नामुमकिन है अतः लेखनी को विराम देते हुए अन्त में इतना जरूर कहा जा सकता है कि यदि हमने अपने आप से प्रश्न किए तो हमारी दिनचर्या और सोचने की दिशा निश्चित रूप से बदलेगी एवं जीवन में ज्यादा सकारात्मक सोच बनने लगेगी इसी के साथ साथ नित्य प्रति की समस्याओं को अधिक आसानी से सुलझाने में मदद मिलेगी और घरेलू निर्णय ज्यादा आसानी से एवं सही रूप से लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित कर सकेंगे । यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।

डी पी माथुर

Sunday, October 06, 2013

अभिव्यक्ति का एक प्रकार आलोचना

          हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे चुप रहने के लिए कहा जाता है।

         जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक आयु वर्ग के इंसानों में ज्यादातर अलग अलग विषयों पर बातचीत की जाती है। छात्रों में अपने स्कूल, खेल आदि की बात की जाती है तो घरेलू महिलाओं में ज्यादातर घर परिवार या टी वी सीरियल तथा पास पड़ौस का विषय मुख्य होता है। इसी प्रकार कामकाजी महिलाओं, पुरूषों तथा बुजुर्गो के बातचीत के विषय अलग अलग होते हैं। ऐसा होेना स्वाभाविक भी है क्योंकि हम सभी का मानसिक ज्ञान , कार्य स्थली, संगी साथी तथा हमारे आस पड़ौस का वातावरण भिन्न भिन्न होता है।

        लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि एक ऐसा सामान्य विषय है जिसका प्रयोग लगभग सभी आयुवर्ग और प्रोफेशन के लोगों द्वारा कभी कभी अपनी बातचीत में किया जाता है ! जी हाँ आप सही समझ रहे हैं हम यहां आलोचना के अनेक रूपों यथा व्याख्यात्मक ,सैद्धान्तिक ,निर्णयात्मक ,प्रभाविक आदि में से एक व्यवहारिक रूप की ही चर्चा कर रहे हैं।

        आलोचना करना या परनिन्दा करना एक ऐसा विषय है जिसकी अपनी कोई सीमा या परिभाषा नही होती वो प्रत्येक इंसान और स्थिती में बदल जाता है पर सदा मौजुद रहता है । किसी के बारे में विश्लेषण के लिये समालोचना की जाती है तब तक तो अच्छा है पर जब यह परनिन्दा का रूप ले लेती है तो बुराई की श्रैणी में आ जाती है। आलोचना के इस रूप को जाने अनजाने हम सभी अपनी वार्तालाप में स्थान दे ही देते हैं।

       दरअसल आलोचना का अर्थ है किसी भी इंसान या वस्तु के सभी अच्छे बुरे गुण एवं दोषों को अच्छी तरह परख कर उसकी विवेचना या समीक्षा करना। इस विधा का उपयोग करने से जिसकी आलोचना की जाती है उसे अपनी कला में और सुधार करने की प्रेरणा मिलती है किन्तु यह बीते जमाने की बात हो गई प्रतीत होती है आजकल की आधुनिक आलोचना तो बस व्यक्तिगत निन्दा का ही रूप धारण कर चुकि है एवं पहले की भाँति अब किसी की आलोचना करना प्रोत्साहित करने की बजाय उसके दिल को ठेस पहुँचाने का कार्य करता है। इतना ही नही आज धन का उपयोग कर कुछ धनाढ़य अन्य साहित्यकारों की रचनाओं को अपनी रचना घोषित करवा कर अपने पक्ष में प्रशंसा वाली व्याख्या और विश्लेषण करवाने में भी कामयाब हो जाते हैं।

          महिलाओं के बारे में यह किवंदती है कि वे निन्दा अधिक करती हैं लेकिन सच में ऐसा नही है। पुरूषों द्वारा भी समान रूप से निन्दा की जाती है लेकिन उनकी निन्दा दिखाई नही दे पाती क्योंकि पुरूष कम बोलते हैं और महिलाएं अधिक बोलती हैं। यदि दोनो के बोलने के अनुपात में निंदा का आकलन किया जाये ंतो प्रतिशत में रेश्यो लगभग समान ही आयेगा।

      एक कारण और है निन्दा सदैव कुछ औपचारिक बातों को करने के बाद वार्ता को आगे बढ़ाने के रूप में प्रारम्भ होती है चूंकि पुरूष ज्यादा बातें नही करके मात्र औपचारिक बातें ही करते हैं अतः निन्दा प्रारम्भ होने से पूर्व ही उनकी बात खत्म हो जाती है इससे यह भ्रम बनता है कि पुरूष निन्दा नही करते । यदि पुरूषों को लम्बी बातें करनी पड़ती है तो वहां भी निन्दा आ ही जाती है।

         इंसान निन्दा क्यूं करता है यदि हम इसका विश्लेषण करने की कोशिश करें तो अनेकों तथ्य सामने आते है जैसेः

प्रथम- वार्ता को लगातार आगे बढ़ाने के लिए कोई ना काई विषय चाहिए होता है और वार्ता करने वाले दो व्यक्ति जिस तीसरे को जानते हैं उसके बारे में बात करना काफी आसान होता है।

द्वितीय- व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में यदि कोई लगनपूर्वक कार्य करता है तो अन्यों की नजर में उसकी पैठ विकसित होने लगती है क्योंकि कार्य सभी को प्यारा होता है अतः उसके साथियों द्वारा उसकी निन्दा प्रारम्भ हो जाती है।

तृतीय-  इंसानी प्रवृति है कि कोई आपका घरेलू या जानकार सदस्य आपसे ज्यादा उन्नति कर रहा है तो उससे ईर्ष्या भाव पैदा होने लगता है अब चूंकि उसके सामने उसकी निन्दा करके उससे सम्बन्ध खराब नही करना चाहते हैं अतः उसके पीछे से निन्दा करके मन का असंतोष निकाला जाता है।

चतुर्थ- आज के जमाने में इंसानी हैसियत मात्र पैसे के दम पर आँकी जाती है जो जितना धनाढ़य उसकी उतनी ही इज्जत और हैसियत समझी जाती है एवं उसके नजदीक के लोगो के लिये उसकी निन्दा अपनी हैसियत नीचे ना दिखें इसलिए कि जाती है।

          धनाढ़य वर्ग द्वारा गरीब की निन्दा उसकी हँसी उड़ाने के लिए की जाती है। इसी प्रकार सभी की चहेती घरेलू महिला की अन्य बराबर वाली महिलाओं द्वारा निन्दा किया जाना भी आम रूप से देखा जाता है। और भी अनेक कारण आपकी नजर में होंगे लेकिन मुख्य बात ये है कि क्या हमें अपनी इस बुरी आदत पर लगाम लगाने की पहल नही करनी चाहिए ? जब भी हमें आलोचना करने का मौका मिले जरूर करें लेकिन उस आलोचना में सामाजिक स्थिति, वातावरण, आलोचित होने वाला साहित्य या व्यक्ति तथा परिस्थितियों को देखते हुए अपनी बुद्धि का सही रूप से उपयोग करते हुए यह ध्यान रखें कि इस आलोचना का उस पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।

                                 डी पी माथुर

पूर्व में ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना

Wednesday, October 02, 2013

श्राद्ध

                      चिड़ियों की चहचहाहट और कोयल की कूह कूह ने नित्य की तरह फिर से प्राकृतिक अलार्म बजाकर भोर होने का संदेश सुनाया और मैने कुछ पल सुस्ताते हुए बिस्तर त्याग दिया। लाईट जली देख कर कुछ ही देर में पत्नि भी उठ गई और अपने कमरे से अंगड़ाई लेती हुई बिना बात किये मात्र औपचारिक मुस्कुराहट के साथ अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो गई। आज प्रातः घर का माहौल कुछ अलग अलग भारी सा प्रतीत हो रहा है और दिनों की तुलना में आज कुछ ज्यादा ही शांति महसूस हो रही है। मैं भी अपने दैनिक कार्यो के बाद अखबार के पन्नों को बदलते हुए, सब कुछ सामान्य ही है ऐसा दिखाने की चेष्टा कर चुपचाप बच्चों के जागने की प्रतिक्षा करने लगा फिर कुछ देर में ही उकता कर अपनी पसंदीदा कलम से मन के उदगारों को आकार देने में व्यस्त हो गया ।

                    दरअसल आज ही के दिन मेरी परम पूज्य करूणामयी माँ हम सभी को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई थी शायद ईश्वर को उनकी याद आ गई थी। और कल रात देर तक मैं और धर्म पत्नि माँ के बारे में बातें करते करते सोने चले गये थे। आज उनका श्राद्ध है ।

                    माँ के बारे में सोचकर जब मन उदास होने लगा तो तुरन्त दूसरे मन ने उसे ढ़ाढ़स बंधाते हुए समझा दिया और यह प्रकृति का क्रम यूंही चलता रहेगा। मन की बात मानते हुए गुजरे जमाने की यादों में खोने लगा और महसूस करने लगा कि माँ चाहे हमारे पास से भौतिक रूप से चली गई हों पर उनका प्यार तो आज भी पूर्ववत निरंतर हम पर अपनी करूणा बरसा रहा है। एक माँ का अपने बच्चों के लिए प्यार और त्याग कितना गहरा होता है यह अहसास उनके जाने के बाद ज्यादा व्याकुल कर देता है , नम आँखें माँ के लिये सोचती सोचती कब छलकने लगी इसका अहसास ही नही हो पाया, हाथ की कलम शब्दों को उकेरते उकेरते कांपने लगी। आँखो से निकल कर अश्रु जब कागज पर गिरा तो अहसास हुआ कि यह माँ का पुत्र पर दर्शाया प्यार ही है जो इतना ज्यादा हो गया है कि शरीर में समा नही पा रहा है और अपनी सीमाएं लांघकर आँखों के द्वार से बाहर छलक गया है।

                 मेरी कलम को स्वतः ही विराम मिल गया , मैने अपना चश्मा उतारा और आराम कुर्सी से सर लगा कर शुन्य में देखने लगा। कुछ ही पलों में मैने अपने चश्में को साफ करके वापस लगाया और अपने लैटर पैड को उठा कर वापस कलम चलाते हुए विचारों के अथाह समुंद्र में खो गया।
यह कैसा रूप है प्यार का ?

                हम सभी जीवन में प्यार के सभी रूपों से रूबरू होते रहते है जैसे मित्रों, पारिवारिक सदस्यों और सहृदय पत्नि का पल पल छलकता प्यार एवं एक पिता होने की जिम्मेदारी के साथ महसूस किया जाने वाला प्यार।

                दरअसल प्यार और करूणा का जो रूप एक माँ में विद्यमान होता है वह ओर कहीं भी नही दिख सकता जिसमें प्रेम, त्याग, वात्सल्य और अनेकों रूपों का समावेश है। मैं अपनी इन पंक्तियों  के माध्यम से आपके मन में एक पल के लिए माँ की याद दिलवा सका यही मेरी माँ का सच्चा श्राद्ध और एक पुत्र होने का कर्तव्य है।

भीड़ में तन्हाई सता रही है ,
अकेला हूँ , अहसास करा रही है ,
आत्मा , शरीर  बन्धन में छटपटा रही है,
यादें बोझ बनकर , क्यूं रूला रही है,
ये आज पल-पल, माँ क्यूं याद आ रही है ।

डी पी माथुर

Wednesday, September 25, 2013

अहसास

सभी आदरणीय साहित्यकारों और सृजनकर्ताओं को मेरा प्रणाम,

एक माह तक भारतीय रेल सिगनल इंजीनियरी और दूरसंचार संस्थान , सिकन्दराबाद,  आंध्र प्रदेश  में नवीन तकनीकी ज्ञान अर्जन करने के कारण आप सभी से एवं ब्लॉग से दूरी रहने  की आप सभी से क्षमा मांगते हुए अब पुनः आपके ब्लॉग पर जाने एवं आपकी प्यारी प्यारी रचनाओं को पढ़ने की इजाजत चाहूँगा ।

अहसास

      ब्लॉग की दुनिया से दूर हो जाने का,
                एक अहसास अलग सा होता है ।
      कुछ अनकहा सा धुंधला धुंधला,
              चाहकर भी, कुछ साझा ना कर पाने का,
      एक अहसास अलग सा होता है ।

       एक अनचाही दूरी , एक अलग सी खामोशी ,
            निरंतर जन्म लेती भावनाएं, फिर भी रहता एक बिखराव ।
      समय से कुछ कदम पीछे रह जाने का,
              पास होकर भी पास नही होने का ,
      एक अहसास अलग सा होता है ।

      मन को बस पढ़ाई मे लगाने का,
              कलम की कुछ गति मंद हो जाने का ।
      बोल मुँह तक आकर रूक जाने का,
              कुछ गैरों से मिल उन्हें अपना बना लेने का,
      एक अहसास अलग सा होता है ।

      किन्तु पल पल आकर साथ का ,
             अहसास कराती आपकी याद।
      आप ओर आपकी प्यारी न्यारी कलम,
             आपकी रचना के उदगारों में खो जाने का ,
      एक अहसास अलग सा होता है ।

      कलम की खुशियां लौट आई,
           साथ कुछ नये मित्र ले आई ।
      माह पूर्व तक जो अन्जाने थे,
           आज अपनो में शामिल हैं।
      सच, नव साथियों से बिछुड़ने का भी,
           एक अहसास अलग सा होता है ।


दूरियां


   आपसे दूरी, नेट से दूरी, ब्लॉग से दूरी ,
               एक अलग अहसास,
   साँझ को घर लौटने जैसा ।
               कुछ थके थके, 
   सब कुछ हल्का हल्का, कुछ बदला बदला।
               पूरे माह वही सतत दिनचर्या, 
   प्रातः उठना, मार्निंग वॉक ,
               इडली डोसा उत्पम नाश्ता ,
   निरंतर क्लास , बस पढ़ाई ।
              कुछ नया सीखने की ललक।
   परीक्षा का खौफ,
         सर्वाधिक अंक पाने की मानसिकता ।
   हर प्रांत हर भाषा का संगम,
       अनेकता में एकता का जीवंत अहसास।

  लेखनी फिर भी कुछ पल चुराती,
             लेकिन ब्लॉग तक नही पहूँचा पाती,
   बस डायरी तक ही सिमट जाती ।
             या क्लास में साथियों को सुना,
   उनके चेहरे पर मुस्कान लाती।
            समय फिर आ गया, वहीं लौटने का ।
   अपने प्यारे प्यारे साथियों के पास,
            लेकिन नये अहसास के साथ।

                   डी पी माथुर


Monday, August 19, 2013

सूत का धागा

सूत चाहे कच्चा हो, 
              रिश्ता बहुत गहराता है।
      एक छोटा धागा राखी बन, 
              बड़ा अहसास करवाता है।

भागमभाग जीवन में जब जब,
               यह प्यारा दिन आ जाता है।
       स्नेह से भीगती पलकों को,
               बचपन याद करवाता है।

भोली भाली छुटकी हो या,
               सीख सिखाती बड़ी बहना।
       प्यार से बाँधा यह बन्धन,
              माँ का अहसास करवाता है।

एक चाहत जिसे पाने को,
              हर शख्स अधीर हो जाता है।
       राखी के एक धागे से,
              भैया का संसार महक जाता है।

एक बंधन जो बन्धन होकर भी,
              स्वतंत्र अहसास करवाता है ।
       रिश्ते को मजबूत बना,
             भाई को जिम्मेदार बनाता है।
                             
                                   डी पी माथुर

बरखा


  • आई बरखा, झूमा तन मन, 

                            सब अच्छा लगता है।
         टूटी सड़कें, फैला कीचड़,
                            कुछ भद्दा लगता है।


  • बच्चों की किलकारी, चँहू ओर हरियाली,

                         सब अच्छी लगती है।
          मजदूर की दिहाड़ी, मौसमी बिमारी,
                         मन में पीड़ा भरती है।


  • नाचते मोर के पंख, कागज की नावें,

                       मन को हर्षाती है।
         भूखे पक्षी, आसरे को तरसते बेघर,
                      दिल में धाव दे जाती है।


  • पकौड़ों की खुशबु , चाय की चुस्की,

                      मेल मिलाप बढ़ाती हैं।
          स्कूल की मजबूरी, दफतर की लाचारी,
                      कुछ भारी पड़ जाती है।


  • गिरती बूँदें , भीगती धरती,

                    नव अंकुरण करवाती है।
           उफनती नदियां, डूबती बस्तियां,
                    जीवन लील जाती है।


  • रिमझिम वर्षा, धरती में समाकर,

                    जलस्तर बढ़ाती हैं।
          कहर ढ़ाती नदियां, उफनते समुंद्र,
                    मछुआरों की पीड़ा बढ़ाती है।
 
                  डी पी माथुर

Wednesday, August 14, 2013

नव स्वतंत्रता

    भारत माँ कि स्वतंत्रता , 
                 एक प्यारा अहसास है।
    जिसके एक एक कतरे में, 
                देशभक्तों का बलिदान है !

    स्वयं की हस्ती मिटा कर, 
                आजादी हमें दिलाई है।
    खुली हवा के झोंके सी, 
                खुशनुमा आभा बन पाई है।
    निज छोटी चाहत पाने को, 
                 हम आपस में लड़ जाते हैं।
    अपने हाथों ही वतन को, 
                 हम आहत कर जाते हैं।

    हम मिलजुल एक प्रण कर जाएं, 
                 सब अपना कर्तव्य निभाएं,
     जाति धर्म क्षेत्र भुलाकर, 
                अमन चैन की बयार फैलाएं।
    सीमा पर लड़ते जवानों का, 
                कुछ भार हल्का कर जाएं।
    67 वर्षो की धरोहर  , 
                आज हम बचा ले जाएं।

     एकता का स्वर बन जाएं , 
                मन में नई उमंग भर जाएं।
     शोषित-षोषण शब्द मिटाएं, 
                भाई चारा चहुं ओर फैलाएं।
     किसी की जान ना जाने पाएं,
                दुश्मन की सांस भर जाएं।
     विकास की राह पर चलकर ,
               फिर से नव स्वतंत्रता लाएं।

     हम मिलजुल एक प्रण कर जाएं, 
                 सब अपना कर्तव्य निभाएं,

Tuesday, August 06, 2013

आधुनिकता बनाम पुश्तैनी

            इस आधुनिक और भागमभाग जिंदगी में यदि किसी चीज़ का अकाल पड़ा है तो वो समय है कोई किसी से बिना मतलब मिलना नहीं चाहता यदि आप किसी से मिलना चाहो तो उसके पास टाइम नही है।  और मजबूरी वश या अनजाने में यदि मिलना भी पड़ जायें तो मात्र दिखावटी प्यार व चन्द रटी रटाई बातें करने के बाद मौका मिलते ही “आओ ना कभी ” कह कर बात खत्म करने की कोशिश की जाती है और सामने वाला भी तुरन्त आपकी मंशा समझ कर टाइम ही नही मिलता  का नपा तुला जवाब देकर इतिश्री कर लेता है। लगता है जैसे एक दूसरे से विदाई लेने का यह आधुनिक तरीका विकसित हो गया है। वो समय चला गया जब एक दूसरे से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए विदा ली जाती थी। प्रतिदिन की तेज रफतार जिंदगी में हम ना जाने कहाँ खोते जा रहे हैं।
        यदि हम इसके पीछे छिपे कारण को तलाशना चाहे तो उसमें मुख्य रूप से आज के आधुनिक परिवेश को पायेंगे। इस विषय में आगे बात करने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आधुनिकता को सौ प्रतिशत खराब कह देना भी उचित नही है किसी का अच्छा या खराब होना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि हम हमारे परिवेश में आधुनिकता के किस रूप को अपना रहे हैं।
        वापस अपने मूल विषय पर आ जाते हैं यदि समयाभाव या एकल होने की बढ़ती प्रवृति का किसी से कारण जानने कि कोशिश कि जायें तो आधुनिकता को इसका कसूरवार बताया जाता है कुछ हद तक यह सच भी लगता है आज सभी की लाइफ स्टाइल कुछ ज्यादा ही आधुनिक हो गई है जिसमें संस्कारों का महत्व कम हो गया है ।
        पाश्चात्य बनने की होड़ ने हमारी तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं के विचारों को बदल दिया है और यह बदलाव अब उनके द्वारा की जाने वाली आधुनिक टिप्पणियों जिनकी भाषा ज्यादातर अमर्यादित होती है, के रूप में सुनाई देने लगी है अर्थात सटीक वाणी के नाम पर जो जितने अधिक दिल को चोट पहुंचाने वाले शब्दों का इस्तेमाल करेगा उतना ही अधिक फारवर्ड और मार्डन कहलाने लगा है। जो संस्कारी युवा पढ़ लिख कर भी आदर सम्मान की भाषा बोलते है उन्हें पिछड़ा और कमजोर माना जाता है ।
         इस आधुनिकता ने हमारे समाज के सबसे सुन्दर और हमारी पहचान समझे जाने वाले हमारे पौराणिक और सभ्य पहनावे पर भी गंभीर चोट की है और इसमें टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में हमारे टी वी सीरियलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है आज पढ़ा लिखा समाज अपने बच्चों को फैशन के नाम पर फूहड़पन लिये हुए कपड़े पहना रहा है और कुछ युवा स्वयं भी ऐसे ही कपड़े पहन रहे हैं वे समझते हैं कि जो जितने कम और फूहड़पन लिये कपड़े पहनेगा उतना ही आधुनिक और फैशनेबल कहलायेगा। सबका ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होगा। ये अलग बात है कि लज्जा पहनने वाले को नही बल्कि देखने वाले को आती है। और सभी उसकी निंदा अपने अपने घर जाकर ही करते हैं, मार्डन दिखने वालों को इस बात का भान नही होता है कि देखने वाले लोग तुम्हारे फैशन को नही बल्कि बदन को देख कर तुम्हें ही बुरा समझ रहे हैं। क्यूं ना उसी समय ऐसे पढ़े लिखे पाश्चात्य के अंध भक्तोे को उनके पहनावे की असलियत बता दी जायें हो सकता है आइंदा वो पहनावे का ध्यान रख सकें
         हम सभी जानते हैं कि आज के इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में हमारे युवा कड़ी मेहनत व अधिक फीस देकर पढ़ाई पूर्ण करते हैं फिर दिन रात किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में जी तोड़ मेहनत करते हैं और दिन रात काम के तनाव में अपने जीवन के स्वर्णीम समय को पुरा का पुरा धन कमाने में ही लगा रहे हैं और नित नये इलैक्ट्रोनिक गजेटस् , गाड़ियां और फर्निचर खरीदने में सिमट कर अपना सुख तलाश रहे है। आज की युवा पीढ़ी एकल रहकर इन्ही के भरोसे अपनी दुनिया रंगीन बनाने में लगी है लेकिन वास्तविकता में जब तक सब कुछ सही चलता रहा तो ठीक वर्ना बढ़ते तलाक और डिप्रेशन के मरीज खुद ब खुद बता रहें हैं कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी दुनियां रंगीन बना रही है या रंग हीन बना रही है। काम का बढ़ता बोझ युवाओं को युवावस्था में ही बीपी शुगर आदि विभिन्न बिमारियों का शिकार बना रहा है। जिन भौतिक वस्तुओं को खरीद कर युवा उनके मद में स्वयं को महान और बड़ा आदमी समझने की भूल कर रहा है वे वस्तुएं सप्ताह के पाँच दिन घर में या तो बेकार पड़ी रहती हैं या उनके घरों में नौकर उन वस्तुओं का उपयोग कर रहे है। शायद वो मालिक से ज्यादा भाग्यशाली हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक एस एम एस पढ़ने को मिला कि हमारे देश में पिज्जा पहले पहुंचता है और एम्बूलेंस बाद में पहूँचती है, पढ़कर शायद अच्छा नही लगे लेकिन खुले दिल से सोचा जाएं तो इसमें कहीं ना कहीं सच्चाई छिपी है।
          आधुनिकता से हमें कुछ लाभ अवश्य हुआ है जैसे हमारी युवा पीढ़ी की सोच पहले से ज्यादा व्यापक हुई है वह विश्व पटल पर ज्यादा सशक्त रूप से अपना परचम लहराने लगा है और अपनी सकारात्मक सोच व अर्जित क्षमता के कारण आगे बढ़ा है। बस उसे आवश्यकता तो आधुनिकता के साथ साथ अपने मूल स्वरूप, रहन सहन आदर्श, नैतिकता,मर्यादा का सही समावेश करने की है। आज आधुनिकता के कारण हम से मैं में बदलती सोच को त्यागने या सुधारने की जरूरत है, बेतहाशा होड़ में पड़कर ई एम आई रूपी सूदखोर से उपर उठने की है।
तथा ई एम आई के उपयोग को जीवन की अहम् आवश्यकताओं मकान, शिक्षा तक ही सीमित रखने की है उसे उपभेक्तावादी आधुनिक अल्प समय काल वाली वस्तुओं पर खर्च करने की नही है।
         अन्त में कहना चाहूँगा कि आधुनिकता के नाम पर रिश्तों को खोने की बुनियाद पर सुखी होने {वास्तव में नही} से अच्छा होगा रिश्तों के साथ परम सुख का आनन्द उठाना जो हमारे पूर्वज करते आये हैं। हमें अपनी जड़े अपनी संस्कृति के धरातल में ही रखकर आधुनिकता के फलों का आनन्द लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित करनी होगी तभी हम सही जीवन शैली का आनन्द उठा पायेंगे।

ओ बी ओ पर पूर्व में प्रकाशित 

Sunday, August 04, 2013

क्यूं

         मुझे क्यूं लगता है , तुम्हे खो दुंगा ,
                                   तुम्हें पा लिया है ,
         ये भी तो मात्र एक भ्रम है !


         जाने क्यूं लगता है ,रो दुंगा ,
                                 हँस रहा हूँ ,
         ये भी तो मात्र एक भ्रम है !
                     नदी के किनारों सा,
         साथ चलते चलते ,
              क्यूं समझता हूँ ,मिलन होगा !
        अनवरत साथ बह पा  रहा हूँ ,
                 ये भी तो मात्र एक भ्रम है !


        जाने क्यूं समझता हूँ ,
                   तुम, ये, वो सब मेरा है !
        शाष्वत सच ये कहता है ,
                   जो भोग लिया वो सपना है ! ,
        जो उकेर दिया भाव ,वो अपना है !
                   प्रकृति का मात्र यही एक क्रम है !
         सात जन्मों का साथ,
                   भी तो मात्र एक भ्रम है !


         क्यूं यादों में खो जाते हैं ,
                   याद उन्हें कर जाते हैं ,
         बगैर किसी के चाहे भी ,
                   ख्वाबों में बसा जाते हैं !
         बिन उनके जी नही पायेंगे ,
                   प्यार का , ये कैसा क्रम है  ,
         जो सच ना होकर ,
                    मात्र मन का ही भ्रम है !


         जीवन का हर छोटा पल ,
                माँ की याद दिलाता है !
         साया सा हरदम उसका,
                निशछल अहसास कराता है !
         प्यार भरी ममता के आगे ,
                  सब बौना रह जाता है,
        यही मात्र एक ऐसा क्रम है ,
                 जो भ्रम नही , एक सच्चा क्रम है !
 

                पूर्व में ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना ।

Monday, July 22, 2013

गुरूवर


  • गुरूवर मेरे तुम्हें प्रणाम ,

               भर दो मुझ में ज्ञान अपार !
       पत्थर से पारस बन जाऊँ,
              सर्व समाज के काम मैं आँऊ !


  • गुरूवर ऐसी राह दिखाओ ,

            जन जन में जा अलख जगाँऊ !
      राह से कभी भटक ना जाँऊ ,
           ज्ञान ज्योति घर घर फैलाँऊ !


  • गुरूवर मुझको ऐसा वर दो ,

           कृपा से अपनी मुझको भर दो !
      द्वैष अहम् से दूर निकलकर ,
           जीवन में कुछ नेक करूं !


  • गुरूवर कुछ ऐसा हो जायें ,

             सच मेरा सपना हो जायें !
      सबको समान समझना आये ,
             तन मन कोमल बनता जायें !
      अंधियारे को मिटा सकूँ ,
             जन हित में कल्याण करूं !

Sunday, July 21, 2013

पिता


  • सघन वृक्ष सा विशाल अडिग,

                  तपन में शीतलता देता !
         तुफानों से हर पल लड़ता ,
                फिर भी सदा सहज वो दिखता !
        अपनी इन्हीं बातो के कारण ,
               वो एक पिता कहलाता !


  • कठोर सा यह दिखने वाला ,

               दिल से कोमलता दिखलाता !
        बेटी के दर्द से विचलित ,
              डान्ट वरी माई डॉटर कहता !
       पर उसकी विदाई पर वो ,
             खुद को असहाय है पाता !
       लाख चाहकर भी वो अपने,
            अनवरत आँसू रोक ना पाता !
      अपनी इन्हीं बातो के कारण ,
            वो एक पिता कहलाता !


  • बात बात पर डाँट लगाता ,

              सुरक्षा का बोध कराता !
        ममतामयी माँ भी जब डाँटे ,
              पिता बचा ले जाता !
       समाज की नित बंदिशों को ,
             पिता तोड़ है पाता !
      बेटी की एक चाहत पर वो ,
            समाज से लड़ जाता !
      बेटी को पढ़ा लिखा कर ,
           नया केरियर दिलवाता !
     अपनी इन्हीं बातो के कारण ,
           वो एक पिता कहलाता !

  “ ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना

चाहत


  • पिता हूँ , शायद कह ना पाऊँ, 

                 माँ सा प्यार ना दिखला पाऊँ !
         चाहत है पर मन में इतनी,
                 प्यार में नम्बर दो कहलाऊँ !


  • जीवन की हर कठिन डगर में,

               साथ खड़ा हो पाऊँ !
         जब जब तुम्हें धूप सताये ,
               छॉव मैं बन जाऊँ !
        माँ तो नम्बर एक रहेगी ,
             मैं , नम्बर दो कहलाऊँ !


  • समुंद्र भले ही कोई कहे ,

             आँसुओं से बह जाऊँ !
         तुम्हारी एक आह पर ,
             विचलित मैं हो जाऊँ !
        पत्थर हूँ ,
             पर ,सुनकर दर्द तुम्हारे ,
       मोम सा पिघल जाऊँ !
           लड़ना पड़े चाहे तुफानों से ,
      तुम्हें बचा ले जाऊँ !
           चाहत है पर मन में इतनी,
     प्यार में नम्बर दो कहलाऊँ !
 
         ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना

Monday, July 08, 2013

जंग


  • कलम हाथ में लिए, 

              कागज पर नैन गड़ाये था । 
       भावनाओं की खोज में दौड़ता मन ,
              कुछ शब्दों को रूप दे पाया था ।
       जाने क्यूं कलम अचानक ठहर गई ,
              मानो घरेलू सियासत रंग चढ़ गई !

  • बदला रूप देख कर उसका,

             मन ने भी सियासत दिखलाई !
       अपने विरोधी बयानो से ,
            कलम की बैचेनी बढ़ाई !
       दो तरफा बयानों के दौर में,
            मन ने की चंचल चतुराई !
       कलम तो मेरी दासी है ,
            इस बयान से की उसकी खिंचाई !

  • इनकी बढ़ती लड़ाई ने ,

             तन की बैचेनी बढ़ाई !
      कोशिश करके भी भावनाएं ,
             रूक नही पाई !
      सुन्दर नयनों ने भी अपनी ,
           अश्रुधारा कागज पर गिराई ,
      शब्द भीगते ही कलम, भावुक हो गई,
           अंगुलियों की पकड़ शिथिल हो गई !

  • जंग से रूक गया जब काम,

               तन ने मुखिया की भूमिका निभाई !
       मन तुम सबसे चपल व तेज हो , 
              हमारी करते हो अगुआई !
       पर कलम के बिना आज तक,
             तुम्हारी बात क्या पुरी हो पाई ?
       सब एक दूजे बिन अधुरे है,
            ये समझा उनमें सुलह कराई !
        तब जाकर यह कविता पूर्ण हो पाई !

Friday, July 05, 2013

मकसद


  •        आपको भावुक कर दूं , 

                             ऐसा मेरा मकसद नही !
             आपसे बढ़ाई के दो बोल सुनु , 
                             ऐसी मेरी फितरत नही !
             कोशिश मात्र इतनी है , 
                         मन के भाव बतला सकूं !
             दिल में छिपा है क्या ,
                         आपको भी दिखला सकूं !!


  •        कलम की रतार दिखला सकूं , 

                       एक क्षण ही सही, 
             आपकी चिंताएं मिटा सकूं !
                     पढ़कर आप मुस्कुराएं ,
             तो पीठ अपनी थपथपा सकूं !!
                   दिल में छिपा है क्या ,   आपको भी दिखला सकूं !!

  •       मन की पीड़ा मिटा सकूं , 

                   कुछ राहत मन को दिला सकूं !
            चारों और खिंच गई , 
                    हर दीवार गिरा सकूं !
            सालों से जमती रही , 
                   मन की गर्त हटा सकूं !!
             दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!

  •      चाहता हूँ ,मन को अपने,

                  मस्ती में लहरा सकूं !
           विदाई में तुम्हारे , 
                   हाथ मैं भी हिला सकूं ! 
            सीने में क्या छिपा है , 
                   बिना चीरे ही दिखला सकूं !
            दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!

  •      चाहता हूँ ,

           जीवन में लगी तमाम शर्तो को,  
                    एक ही पल में हटा सकूं !
          फिर से जीने के लिए,  
                   नई बुनियाद बना सकूं !
          अनजाने में बन गई , 
                   हर दूरी मिटा सकूं !
          यादों में तुम्हारी खो, दो बोल गुनगुना सकूं !!
                 कोशिश मात्र इतनी है , 
          दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!

                     
               पूर्व में ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना ।

Sunday, June 30, 2013

प्रकृति छल

 


  •         सुदूर देव पहाड़ियों में,

                     बादलों ,चट्टानों में जंग नजर आई !
             शांति की तलाश में भटकते इंसा को,
                      सृष्टि एक बार फिर छल पाई !


  •        पार्टियों की पार्टी में ,

                    मच गई कैसी हलचल !
             अनेकों भीगती आँखों के बीच ,
                    कुछ में ग्लिसरीन नजर आई !
             असली हो या नकली ,
                   हर तरफ मायूसी छाई !


  •       आसमां के कहर रूपी नीर की बूंद,

                    धरती के संग-संग हर आँख में समाई ! 
              किसी को प्रियजन की याद ने रूलाया,
                    किन्ही में हमेशा के लिये विरानी छाई !
              हर चेहरा निस्तेज,असहाय नजर आया,
                    रहनूमाओं की असलीयत दिख पाई !

  •        जब जब इंसा ने विज्ञान संग मिल,

                     प्रकृति से जीतने की चाह दिखलाई !
             प्रकृति ने अपने किसी खेल से,
                     इंसा को उसकी सीमा दिखलाई !
             इस बार फिर साँप सीढ़ी के खेल में ,
                    नीर रूपी साँप ने फुफकार लगाई !
             हमें असहाय देख प्रकृति मुस्कुराई ,
                  हमारी कोटी वापस नीचे नजर आई ! 

Monday, June 24, 2013

उत्तराखंड प्राकृतिक आपदा

हमारे देश की देव भूमि उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने वहाँ गये तीर्थ यात्रियों के साथ साथ   वहाँ का जनजीवन भी अस्त-व्यस्त कर दिया है,, विषम परिस्थिति की इस घड़ी में हमें अपना धैर्य कायम रखते हुए सच्चा मानव धर्म निभाना है, विभिन्न टी वी चैनलों पर दिखाई गई एवं अखबारों की जानकारी के अनुसार वहाँ लगभग सभी स्थलों और घरों में पानी से साथ आई  मिट्टी व दलदल भरने से खाने पीने की वस्तुएं भी खराब हो गई हैं तथा घर , दुकाने, कारोबार सब उजड़ चुका है हो सकता है उनके परिवारों का भी कोई सदस्य लापता हो । फिर भी वहाँ के गाँव वाले सभी यात्रियों की हर संभव मदद कर रहे हैं । यह जानकर हमें देव भूमि उत्तराखंड के लोगों का धन्यवाद करना चाहिए वो सच में देव भूमि के निवासी हैं !
लेकिन यह जानकर कष्ट हो रहा है कि कुछ असामाजिक तत्व इस वक्त अपने क्षणिक लोभ और लालच में आकर तीर्थ यात्रियों के साथ साथ वहाँ के पीड़ितों को भी लूटने का बेहद आमानवीय कृत्य कर रहे हैं तथा कुछ तथाकथित व्यापारी बन मानवीय-मूल्यों को ताक में रखकर पहले से ही आपदा और प्रकृति की मार झेल रहे भूखे-प्यासे लोगों से रोजमर्या तथा खाने के वाजिब दाम की जगह दस से पचास गुना ज्यादा रूपया वसूल रहे हैं।
इस भयावह प्राकृतिक आपदा में हमारी सेना के जवानों ने यह सिद्व कर दिया है कि उनका मुकाबला इस सम्पूर्ण विश्व में दूसरा नही हो सकता हमारी सरकार और स्थानीय प्रशासन से हमारी यही उम्मीद है कि इस बचाव कार्य की रफतार धीमें ना पड़ने पायें और तीर्थ यात्रियों के साथ साथ   स्थानीय निवासीयों को भी वापस रहने लायक हर संभव सहायता मिले जिससे उन्हे आसानी हो ! देश की जनता को भी सहायता करने का कोई भी मौका और तरीका अच्छा लगे उसी प्रकार सहायता करनी चाहिए क्योंकि हमें यह याद रखना चाहिए कि इस प्रकार की त्रासदी कभी भी किसी जाती धर्म वर्ग या स्थान को देख कर नही आती ! हो सकता है आने वाले समय में हम भी इसी प्रकार भयावह प्राकृतिक आपदा या विषम परिस्थितियों  में फंस जाएँ ! किसी की मदद करने में ही सही मायने में हम अपने मानव-धर्म का पालन कर सकते हैं।
किसी भी रूप में सहायता करने वालों को पुनः धन्यवाद करता हूँ !

Monday, June 17, 2013

पाखण्ड

                 जब से मानव जन्म हुआ,  साथ रहा पाखण्ड !
                 कलयुग हो या अन्य युग , सदा रहा पाखण्ड !
             

  • ज्ञान को अपनी ढाल बनाकर ,  अज्ञानी , लिबास बदलते !

         स्वांग बनाकर तरह तरह के,   कुछ अलग दिख जाते !
         पाखण्ड की आड़ में , अपना व्यापार जमाते !
         असल ज्ञानी तो साधना में ,  लीन ही रह जाते !


  • सेठ साहूकार कर्ज देकर ,  मोटा ब्याज कमाते ! 

         दान के पंखों पर भी ,   वो अपना नाम लिखवाते !
         प्याऊ और बसेरों से वो , इन्कम टैक्स बचाते !
         परोपकार का पाखण्ड कर ,  उससे भी धन कमाते !


  • शिष्य और शोहरत पाने को ,  झूठा प्रचार करवाते !

         पहुँच और पैसों के दम पर ,  जगत में छा जाते !
         ज्ञानियों के साहित्य ग्रंथ पर ,  पाखण्डी मोहर लगाते !
         ज्ञानी को कोई याद ना रखता ,  पाखण्डी पूजे जाते !


  • माँ बाप के जाने पर  ,    जब मोटी वसीयत पाते ! 

         मीड़िया की देखा देखी ,   सफेद लिबास बनवाते !
         बरसी पर फोटो छपवाकर , इतिश्री कर जाते !
         नाम से उनके ट्रस्ट बना ,  पाखण्डी नोट कमाते !

Saturday, May 25, 2013

जीवन लक्ष्य


16 जुलाई 2011 को जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक में छपा मेरा आलेख

जीवन को सार्थक बनाने के लिए लक्ष्य निर्धारण अति आवश्यक है ।                                                                   


जैसा कि माना जाता है प्रत्येक जीव को मनुष्य जीवन लगभग 33 करोड़ योनियों में जन्म लेने के बाद मिलता है। अतः हमें जीवन को निरर्थकता से उबार कर सार्थक बनाने के लिये अपनी व्यस्ततम जीवनचर्या को और सार्थक बनाने के लिये लक्ष्य निर्धारित कर उसे हासिल करने का प्रयास करना चाहिये । कुछ बिन्दू जिन पर हम अमल कर सकते हैं।

  • जीवन में सर्व प्रथम अपने सामर्थ्य को ध्यान में रखकर अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये ,     एक से अधिक लक्ष्य होने पर प्राथमिकता तय कर लेनी चाहिये। 
  • लक्ष्य निर्धारित होने पर बिना समय गवाएं पूरी निष्ठा  ओर लगन के साथ उसे प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से प्रयास  करना चाहिये । 
  • जीवन में प्रत्येक इंसान को सुअवसर जरूर मिलते हैं । ऐसे सुअवसर मिलने पर पूरी क्षमता , लगन, निष्ठा, एकाग्रता से लक्ष्य प्राप्ति के लिए मेहनत करनी चाहिये। 
  • किसी भी कारण से लक्ष्य प्राप्त ना हो तो निराश ना होकर पुनः अपनी गलतियों से सीखते हुए तलाश करने पर नये अवसर जरूर मिलेगें । सदैव आशावादी रहना चाहिये निराशा से लक्ष्य हासिल करना असंभव है।
  • लक्ष्य प्राप्ति के लिए हो सकता है कुछ ऐसे कार्य जो हमें प्रिय लगते हों जैसे टी0वी0 देखना, इधर उधर की बातों में मन लगाना, समय पास करना आदि उन्हें छोड़ने में बिल्कुल देरी नही करनी चाहिये। 
  • अपने भाग्य को ना कोसते हुए कोई कुंठित विचार अपने मन पर हावी नही होने देना चाहिये और यह विचार कि मेरा भाग्य ही खराब है हमारे लक्ष्य निर्धारण मे बाधा पैदा कर सकता है इसलिये कभी भी स्वयं पर दोषारोपण नहीं करना चाहिये । 
  • जैसे जैसे हम लक्ष्य के नजदीक आने लगते हैं वैसे वैसे हमारा जीवन पहले से अधिक रसपूर्ण होने लगता है और हम अपने परिवार व कर्तव्य के प्रति अधिक संतुष्ट, आशावादी, कर्तव्य परायण, समाज सेवी, दृढ निश्चयी होकर  आत्मसम्मान महसूस करते जाते हैं । 



अन्त में  कहना चाहूंगा कि हमारी कल्पनाओं को साकार करना ही हमारे जीवन का मूलमंत्र है अपने को कभी छोटा ना समझते हुए अपनी क्षमताओं को पहचान लेने से  हम सब कुछ कर पाने में सक्षम हो सकते हैं ।  



Wednesday, May 22, 2013

खुशी


Laugh : Illustration of drop with happy expression



  •          कहते हैं , 

                   आंसू मोतियों से कम नही होते ,
                                            बिना दिल की चाहत के,
                  आखों के पुर नम नही होते  !  
                                         कई साल साथ बिताये हैं हमने ,
                  यादें सहेजने और खुशियां बिखरने के लिए ,
                                        ये कम नही होते  !
                 चाहे दुनिया कुछ भी कहे , पर सच ये है कि ,
                                       बांटने से , खुशियों के पल कम नही होते  !

Tuesday, April 09, 2013

प्रेरणा




        क्या मैं लिखता हूँ ? शायद कोई है जो लिखवाता है !
                                कलम हाथ में लूं , तो भावों में चला आता है। !
        जब भी महसूस करूं अकेला , पास खिंचा आता है ।
                              मन के भावों में गोता लगा , पंक्तियां बन उभर जाता है ।
        क्या मैं लिखता हूँ ? शायद कोई है जो लिखवाता है !!

       
         जब भी सोचता हूँ , झिलमिल चेहरा सा उभर आता है !
                          सच मे ना सही , पर प्रेरणा बन जाता है !
         वो मुस्कराहट, अलहड़पन, भोलापन जो मन को भाता है ।
                         वो ही तो मेरे , मन में बस जाता है !!
         माँ, बहन, प्यार, पुत्री ये ही तो नाम बताता है  !
                         सही पहचान पाया हूँ , वो ही तो लिखवाता है।
        मन में आकर मेरे , कलम की प्रेरणा बन जाता है !!

 
        चाहता हूँ उतार दूँ कर्ज उसका, हटा दूँ आवरण और उड़़ जाँऊ !
                             स्वच्छ वातावरण में, जो उसने दिखलाया है !!
        लेकिन क्या भूल पाता हूँ ?
                             जब भी होता हँू अकेला , जाने क्यूं वो चला आता है। !
        और फिर से याद बन , कलम से उभर जाता है !
                           इसी याद में खोकर , ज्यादा लिखने की प्रेरणा पाता हूँ !
         लिखते लिखते ही नई नई पंक्तिया बनाता हूँ
                           क्या मैं लिखता हूँ ? शायद कोई है जो लिखवाता है !!

Thursday, April 04, 2013

अभिलाषा

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 प्रत्येक माता पिता की यह अभिलाषा रहती है। कि उनकी संतान उनसे अधिक सम्पन्न, प्रतिष्ठित व उच्च पद प्राप्त करे। जिस प्रकार शिष्य के यश प्राप्ति का श्रेय गुरू को मिलता है उसी प्रकार माता पिता भी अपने अधुरे सपने को अपनी सन्तान में पूर्ण होते देख उसे अपनी ही सफलता मानते हैं ।
 लेकिन क्या सन्तान के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता पिता ने अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाया है या आज निभा पा रहे हैं ?
 जिस प्रकार हमारी आत्मा अपने दोनों स्वरूपों शरीर एवं मन के बीच सही सामन्जस्य बिठाकर जीवन नैया को आगे बढ़ाती है उसी प्रकार हमारा भी कर्तव्य है कि हम अपनी सन्तान के सफल जीवनयापन के लिए सर्व प्रथम उसकी क्षमता, इच्छा व साधन सुविधा का आकलन करते हुए लक्ष्य निर्धारण करने में मदद करें। इस समय हमारी निष्पक्षता ही सन्तान की इच्छाओं का सही ध्यान रख पायेगी। तथा एक बार निर्धारित लक्ष्य को आज की भौतिकतावादी परिस्थितियों में ताल मेल बैठाते हुए उसे हासिल करने की क्षमता विकसित करने में आने वाली बाधाओं को दूर करते हुए उसका मार्गदर्शन करें।
क्या हम ऐसा कर पा रहे हैं ? या फिर अपने ज्ञान और अनुभव के दम्भ में सन्तान पर अपने विचार व स्वप्न थोप रहे हैं ।
दरअसल संतान के बाल मन से जवान होने तक हम अपने अधूरे सपने को बार बार याद दिलाकर उसके मन में इतना गहरा बैठा देते हैं कि संतान को भी वह सपना उसका अपना लगने लगता है और वह उसे हासिल करने को अपने माता पिता की खुशी के साथ जोड़ कर देखने लगता है ।
अर्थात वह डॉक्टर, इजीनियर, सरकारी नौकर बन कर अपने कैरियर की शुरूआत कर देता है, लेकिन जैसे जैसे वह वयस्क होेता है उसके मन में स्वयं के सपने जैसे लेखक, कलाकार बनना या व्यापार करना आदि पनपने लगते हैं ।
उसका मन बैचेन होने लगता है कि मैं डॉक्टर या इंजीनियर हूंँ अब यदि व्यापार करूंगा या कला के क्षेत्र में जाउंगा तो सभी मुझे मूर्ख कहेगें तथा हसेगें अर्थात वह लीक से हट कर कार्य करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है । उसकी डिग्री इस कार्य में बाधा उत्पन्न करती है जिससे उसके मन में एक कुण्ठा पनपने लगती है तथा वह अपने वर्तमान कार्य को पूर्ण रूचि से ना करते हुए मात्र आजीविका समझ कर ढ़ोने लगता है ।वह मनुष्य जीवन के सबसे बडे कर्म भाग को अनिच्छा से अपनी भावनाओं के साथ समझौता करके जीने लगता है ।
इसी बात को दूसरे शब्दो में कहें तो क्या हमारे द्वारा लिए एक गलत निर्णय को सही ठहराने के लिए हमने अपनी सन्तान को जीवन पर्यन्त गलत निर्णय लेने के लिए बाध्य नही कर दिया ?
यदि खुले मन से स्वीकारें तो मध्यम वर्गीय समाज में पचास प्रतिशत {50} से अधिक अभिवावक इससे सहमत होंगे। जीवन के इस असमंजस में जीते जीते एक दिन सन्तान स्वयं अभिवावक बन जाती है और जाने अनजाने अपने साथ हुई गल्ती को बिना सुधारे अपने अधुरे सपने अपनी सन्तान से पूर्ण कराने की इच्छा रखती है अर्थात यह गलती पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है ।
क्या हमें इसे यहीं रोक कर सुधार नहीं करना चाहिए ? इस प्रशन के उत्तर की प्रतिशतता यहां नहीं बतलायी जा सकती, क्योंकि यह भविष्य काल का प्रशन है जो हमारे आने वाले समय के विचारों पर निर्भर करता है, लेकिन इस पर हमें ध्यान जरूर देना चाहिए ।
अब हमारे दिमाग में यह तर्क आना स्वाभाविक है कि संतान अपरिपक्व होने के कारण सही और गलत का ज्ञान नहीं कर पायेगी इससे वह सही लक्ष्य कैसे बना पायेगी। एवं हम व्यस्क और अनुभवी होने के कारण उसका लक्ष्य अच्छे प्रकार से निर्धारित कर सकते हैं । कुछ मायनों तक मन में उपजा यह तर्क प्रासंगिक भी है लेकिन क्या इन दोनो अवस्थाओं के बीच कोई विकल्प नही है। यदि हम सोचेंगे तो अनेक विकल्प मिल सकते हैं जिसमें से एक विकल्प यह है जिसे चाहें तो हम अपना सकते हैं क्यों ना संतान की    शिक्षा के मध्य भाग में जब उसके लक्ष्य निर्धारित करने का समय आये उस समय हम उसे सभी विकल्पों के लाभ हानि, व्यस्तता व अन्य पहलुओं को समझायंे तथा उसमें से उसका मन किसे हासिल करना चाहता है यह जनाने का प्रयत्न करंे जिससे जीवन में उसे कभी कार्य व इच्छा के दोराहे पर खड़ा ना होना पड़े । हमें ध्यान रखना होगा कि यदि हमारी संतान पारम्परिक कार्यो से हटकर कुछ नया करना चाहती है तो हम अनजाने भय से डरकर बिना सोचे समझे उसके विरोध में खडे़ ना हो जाएं।
अभी समय है हमें इस कटू सत्य को स्वीकार कर सच्चाई के साथ इसे मिटाने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा।

Monday, March 11, 2013

प्रेम एक रूप अनेक

किसी को पवित्र , निस्वार्थ व समर्पित भाव से चाहने का अहसास ही सच्चा प्रेम या प्यार है 


  प्रेम या प्यार रूपी व्यापक शब्द को चन्द पंक्तियों में समेटना बहुत मुश्किल है। फिर भी बात प्रारम्भ की है तो थोड़ी सी चर्चा कर ही लेते हैं। कुछ वर्षो पूर्व तक प्यार का इजहार करने वाला सर्टिफाइड दिन वेलेन्टाइन डे इतना लोकप्रीय नही था। प्यार की बातें करने का सीघा सा ताल्लुक बच्चों के बिगड़ने से होता था। दोस्तो में भी प्यार की बातें अपराध की तरह छिपकर की जाती थी। और गलती से ये चर्चा अपने से बड़ो के सामने कर दी तो वे मन ही मन हमारे बिगडने का सर्टिफिकेट देते हुए कोसने लगते और तुरन्त कन्नी काट कर बिना काम के वयस्त हो जाते थे, पता नही उन्हे ये बातें बुरी लगती थी या शायद अपने जख्म कूरेदे जाने का डर सताता था। उनकी बेरूखी भाँपकर हमें भी अनिच्छा से चुप होना पडता था। लेकिन आज सभी प्रेम का मतलब समझ कर अहसास के साथ साथ इजहार भी करते हैं।
            दरअसल बोलने में बडा सरल व साघारण लगने वाला शब्द प्रेम या प्यार व्यावहारिकता में उतना ही कठिन है, सरल तो मात्र इसका एक रूप आर्कषण होता है । आर्कषण के साथ मीरा जैसा समर्पण व माँ जैसी निश्छल भावनाएँ जोड़ देने पर निश्चित रूप से असाधारण और अटूट शक्तिशाली सच्चा प्यार बन जाता है । और इस सच्चे प्यार की शक्ति के दम पर बडे से बडे काम हो जाते हैं। तभी तो घृतराष्ट्र के पुत्र प्रेम और पाण्डवों के द्रोपती से अटूट प्यार के कारण महाभारत हो गई और रावण के सीता मोह ने रामायण को जन्म दे दिया । यह सब प्यार की असाधारण शक्ति के ही रूप हैं।
             यदि पुछा जायें कि प्रेम क्या है ? तो इसका उत्तर प्रत्येक प्राणी के लिये अलग अलग होगा। क्योंकि जीवन के अनुभव के साथ साथ हमें इसके अनेक रूप देखने को मिलते हैं। जैसे- आत्मिक ,मानसिक , शारीरिक ,आध्यात्मिक प्रेम ,प्रकृति प्रेम , भौतिक प्रेम , वात्सल्य , आकर्षण, निश्चल प्रेम, सामाजिक प्रेम,।
              चलिए कुछ चर्चा सामाजिक रिश्तो में सबसे ज्यादा दिखने वाले प्यार के रोचक रूपों की कर लेते है । “गिरगिटी प्यार” में प्यार करने वाला जब आपके सामने होगा तो ऐसे प्यार दिखायेगा कि आपसे दूर कर दिया तो उसका हार्ट फेल हो जायेगा, सब कुछ खत्म हो जायेगा और सामने से दूर होते ही प्यार का बुखार गिरगिट की तरह रंग बदल कर आपकी कमियां गिनाने में लग जाता है। इसी के “दिखावटी रूप” में कुछ सामाजिक रिश्तेदारों को आपके बढ़ते रूतबे या स्टेटस के कारण दिखावटी प्यार के लिए मजबुर होना पडता है । और किसी किसी पति पत्नि को तो मात्र समाज को दिखाने के लिये या आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा के लिये ही प्यार का झूठ़ा नाटक करना पड़ता है क्योकि मन में अलग होने के बाद समाज में इज्जत और निर्वहन का डर उन्हें ऐसा करने को मजबूर करता है। इसी प्रकार प्यार का “व्यापारिक रूप” भी आजकल ज्यादा दिखने लगा है, क्योंकि वस्तुओं की तरह प्यार मे भी सौदा होने लगा है इंसान सक्षम होते ही अपने प्रियतम के रूप में एक गुलाम खरीदना चाहता है ऐसा गुलाम प्रियतम जो केवल खरीदने वाले के इशारों पर नाचें, अपनी इच्छाओं को दबाकर रखें और दिखावटी समाज के सामने खरीददार को बेहद प्यार का ढोंग सही से करता रहे । गुलाम प्रियतम से आशाएँ पूर्ण होने तक प्यार भी बना रहता है  जैसे जैसे प्रतिफल का व्यापार घटता है ये प्यार भी टूटने लगता है और फिर या तो खत्म हो जाता है या गुलाम पक्ष अपनी भवनाओं पर काबू करने के लिये मजबूर होकर एक तरफा सच्चा प्यार करने लगता है। छोडिये ज्यादा पोल खोलना ठीक नहीँ क्योकि मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आप इन सब जानकारियों में मेरे से सीनियर ही हैं ।
             रोचक रूपों के बाद हम वापस अपनी मुख्य बात पर आते है। संसार में प्रत्येक जीव-निर्जीव के जन्म की तरह ही प्यार का भी जन्म होता है। जी हाँें, जिस क्षण हमें किसी से जुड़ाव, लगाव या आकर्षण महसूस हो समझ लो प्यार का जन्म हो गया तभी तो जब हमारे घर में किसी बालक का जन्म होने वाला होता है तो उसके आने से पहले ही हमारे मन में उसके प्यार का अन्कुर फूट पड़ता हैं जबकि ना तो हमने उसे देखा होता है और ना ही हमें उसके स्वरूप का पता होता है।
             अतः हम कह सकते हैं कि किसी प्राणी का अन्य प्राणी या वस्तु के प्रति आकर्षित या सम्मोहित हो जाने का अनुभव ही प्यार या प्रेम है जिसे सकारात्मक सोच एवम् निश्चल और पवित्र भावना मात्र से ही अनुभव किया जा सकता है यदि एक वाक्य में कहना चाहें तो “ किसी को पवित्र , निस्वार्थ व समर्पित भाव से चाहने का अहसास ही सच्चा प्रेम या प्यार है ” । यही कारण है कि नारी को उसके निश्चल और असीम प्यार के कारण समाज में शक्ति का प्रतिक माना जाता है ।
             अब समस्या ये है कि जब बच्चों से बडो तक सभी को प्यार होता है तो फिर टकराव कहाँ से आ जाता है चूकिं प्यार का सीधा सम्बन्ध हमारी उम्र के साथ होता है। इसलिए उम्र के बढने के साथ साथ प्यार के प्रति धारणा भी बदलती रहती है। बचपन में जो भी हमें प्यार से कुछ देता या बोलता, हम उसी के प्यारे हो जाते थे । उम्र के बढने के साथ साथ हमारे प्यार का दायरा सिमटता गया , कुछ अपने हो गये कुछ पराये हो गये। कुछ और बड़े हुए तो प्यार का दायरा हमारी कामयाबी से जुड़ गया, कामयाबी मिलती गई तो सभी रिश्तेदारों के  प्यार का झूठ़ा दिखावा बढता गया, कामयाबी नही मिली तो वे पहचानने में भी दिक्कत महसूस करने लगते है । प्यार का ये उतार-चढ़ाव जीवन पर्यन्त चलता रहता है । कुछ आदर्श परिवारो को छोड कर बात करें तो अघिकांश में आप अपने परलोक गमन से पहले उन्हें कुछ आर्थिक लाभ दे गये तो अखबार के दिखावटी विज्ञापन से प्यार चलता रहेगा अन्यथा आप जानते ही हैं।
              यह सही है कि प्यार का सुख भोगने की लकीर भी हर किसी के हाथ में नही होती है कहने को तो एक सच्चा प्रेमी प्यार में सारे जहाँ को भूल जाता है । लेकिन यदि  साधारण बात करें तो किसी से भी सच्चा प्रेम तब ही सम्भंव है जब हम किसी की गल्तियों को माफ करना सीखें और उसके अवगुणों को भूलने की आदत बनायें । और यह सब तब तक नही हो सकता जब तक हम अपने अहम् को ना छोड दें । क्योंकि अहमं प्यार की उम्र कम कर देता है या एक तरफा कर देता है। इसमे एक बात और महत्वपूर्ण है जब किसी का अपने घरवालों के साथ व्यवहार सही नही है तो वह कभी भी सच्चा प्रेमी नही हो सकता बस वो दिखावा करके अपने आप को छलता रहेगा।
             अन्त में कहना चाहूँगा कि हमें केवल ईश्वर या माँ-बाप से प्यार में सौ प्रतिशत रिटर्न { प्रतिभूति} मिल सकता है क्योंकि हम भी वहाँ सम्पूर्ण समर्पित होते है इनसे रिटर्न के रूप में हमें प्यार की शक्ति मिलती है । इसी प्रकार हम प्यार की व्यापकता को अपने हद्वय में स्थायी रूप से बिना प्रतिभूति की आशा के बैठाकर और सम्पूर्ण सर्मपण देकर अपने जीवन साथी से भी प्यार की शक्ति का रिटर्न हासिल कर सकते हैं ।