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Monday, August 19, 2013

सूत का धागा

सूत चाहे कच्चा हो, 
              रिश्ता बहुत गहराता है।
      एक छोटा धागा राखी बन, 
              बड़ा अहसास करवाता है।

भागमभाग जीवन में जब जब,
               यह प्यारा दिन आ जाता है।
       स्नेह से भीगती पलकों को,
               बचपन याद करवाता है।

भोली भाली छुटकी हो या,
               सीख सिखाती बड़ी बहना।
       प्यार से बाँधा यह बन्धन,
              माँ का अहसास करवाता है।

एक चाहत जिसे पाने को,
              हर शख्स अधीर हो जाता है।
       राखी के एक धागे से,
              भैया का संसार महक जाता है।

एक बंधन जो बन्धन होकर भी,
              स्वतंत्र अहसास करवाता है ।
       रिश्ते को मजबूत बना,
             भाई को जिम्मेदार बनाता है।
                             
                                   डी पी माथुर

बरखा


  • आई बरखा, झूमा तन मन, 

                            सब अच्छा लगता है।
         टूटी सड़कें, फैला कीचड़,
                            कुछ भद्दा लगता है।


  • बच्चों की किलकारी, चँहू ओर हरियाली,

                         सब अच्छी लगती है।
          मजदूर की दिहाड़ी, मौसमी बिमारी,
                         मन में पीड़ा भरती है।


  • नाचते मोर के पंख, कागज की नावें,

                       मन को हर्षाती है।
         भूखे पक्षी, आसरे को तरसते बेघर,
                      दिल में धाव दे जाती है।


  • पकौड़ों की खुशबु , चाय की चुस्की,

                      मेल मिलाप बढ़ाती हैं।
          स्कूल की मजबूरी, दफतर की लाचारी,
                      कुछ भारी पड़ जाती है।


  • गिरती बूँदें , भीगती धरती,

                    नव अंकुरण करवाती है।
           उफनती नदियां, डूबती बस्तियां,
                    जीवन लील जाती है।


  • रिमझिम वर्षा, धरती में समाकर,

                    जलस्तर बढ़ाती हैं।
          कहर ढ़ाती नदियां, उफनते समुंद्र,
                    मछुआरों की पीड़ा बढ़ाती है।
 
                  डी पी माथुर

Wednesday, August 14, 2013

नव स्वतंत्रता

    भारत माँ कि स्वतंत्रता , 
                 एक प्यारा अहसास है।
    जिसके एक एक कतरे में, 
                देशभक्तों का बलिदान है !

    स्वयं की हस्ती मिटा कर, 
                आजादी हमें दिलाई है।
    खुली हवा के झोंके सी, 
                खुशनुमा आभा बन पाई है।
    निज छोटी चाहत पाने को, 
                 हम आपस में लड़ जाते हैं।
    अपने हाथों ही वतन को, 
                 हम आहत कर जाते हैं।

    हम मिलजुल एक प्रण कर जाएं, 
                 सब अपना कर्तव्य निभाएं,
     जाति धर्म क्षेत्र भुलाकर, 
                अमन चैन की बयार फैलाएं।
    सीमा पर लड़ते जवानों का, 
                कुछ भार हल्का कर जाएं।
    67 वर्षो की धरोहर  , 
                आज हम बचा ले जाएं।

     एकता का स्वर बन जाएं , 
                मन में नई उमंग भर जाएं।
     शोषित-षोषण शब्द मिटाएं, 
                भाई चारा चहुं ओर फैलाएं।
     किसी की जान ना जाने पाएं,
                दुश्मन की सांस भर जाएं।
     विकास की राह पर चलकर ,
               फिर से नव स्वतंत्रता लाएं।

     हम मिलजुल एक प्रण कर जाएं, 
                 सब अपना कर्तव्य निभाएं,

Tuesday, August 06, 2013

आधुनिकता बनाम पुश्तैनी

            इस आधुनिक और भागमभाग जिंदगी में यदि किसी चीज़ का अकाल पड़ा है तो वो समय है कोई किसी से बिना मतलब मिलना नहीं चाहता यदि आप किसी से मिलना चाहो तो उसके पास टाइम नही है।  और मजबूरी वश या अनजाने में यदि मिलना भी पड़ जायें तो मात्र दिखावटी प्यार व चन्द रटी रटाई बातें करने के बाद मौका मिलते ही “आओ ना कभी ” कह कर बात खत्म करने की कोशिश की जाती है और सामने वाला भी तुरन्त आपकी मंशा समझ कर टाइम ही नही मिलता  का नपा तुला जवाब देकर इतिश्री कर लेता है। लगता है जैसे एक दूसरे से विदाई लेने का यह आधुनिक तरीका विकसित हो गया है। वो समय चला गया जब एक दूसरे से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए विदा ली जाती थी। प्रतिदिन की तेज रफतार जिंदगी में हम ना जाने कहाँ खोते जा रहे हैं।
        यदि हम इसके पीछे छिपे कारण को तलाशना चाहे तो उसमें मुख्य रूप से आज के आधुनिक परिवेश को पायेंगे। इस विषय में आगे बात करने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आधुनिकता को सौ प्रतिशत खराब कह देना भी उचित नही है किसी का अच्छा या खराब होना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि हम हमारे परिवेश में आधुनिकता के किस रूप को अपना रहे हैं।
        वापस अपने मूल विषय पर आ जाते हैं यदि समयाभाव या एकल होने की बढ़ती प्रवृति का किसी से कारण जानने कि कोशिश कि जायें तो आधुनिकता को इसका कसूरवार बताया जाता है कुछ हद तक यह सच भी लगता है आज सभी की लाइफ स्टाइल कुछ ज्यादा ही आधुनिक हो गई है जिसमें संस्कारों का महत्व कम हो गया है ।
        पाश्चात्य बनने की होड़ ने हमारी तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं के विचारों को बदल दिया है और यह बदलाव अब उनके द्वारा की जाने वाली आधुनिक टिप्पणियों जिनकी भाषा ज्यादातर अमर्यादित होती है, के रूप में सुनाई देने लगी है अर्थात सटीक वाणी के नाम पर जो जितने अधिक दिल को चोट पहुंचाने वाले शब्दों का इस्तेमाल करेगा उतना ही अधिक फारवर्ड और मार्डन कहलाने लगा है। जो संस्कारी युवा पढ़ लिख कर भी आदर सम्मान की भाषा बोलते है उन्हें पिछड़ा और कमजोर माना जाता है ।
         इस आधुनिकता ने हमारे समाज के सबसे सुन्दर और हमारी पहचान समझे जाने वाले हमारे पौराणिक और सभ्य पहनावे पर भी गंभीर चोट की है और इसमें टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में हमारे टी वी सीरियलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है आज पढ़ा लिखा समाज अपने बच्चों को फैशन के नाम पर फूहड़पन लिये हुए कपड़े पहना रहा है और कुछ युवा स्वयं भी ऐसे ही कपड़े पहन रहे हैं वे समझते हैं कि जो जितने कम और फूहड़पन लिये कपड़े पहनेगा उतना ही आधुनिक और फैशनेबल कहलायेगा। सबका ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होगा। ये अलग बात है कि लज्जा पहनने वाले को नही बल्कि देखने वाले को आती है। और सभी उसकी निंदा अपने अपने घर जाकर ही करते हैं, मार्डन दिखने वालों को इस बात का भान नही होता है कि देखने वाले लोग तुम्हारे फैशन को नही बल्कि बदन को देख कर तुम्हें ही बुरा समझ रहे हैं। क्यूं ना उसी समय ऐसे पढ़े लिखे पाश्चात्य के अंध भक्तोे को उनके पहनावे की असलियत बता दी जायें हो सकता है आइंदा वो पहनावे का ध्यान रख सकें
         हम सभी जानते हैं कि आज के इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में हमारे युवा कड़ी मेहनत व अधिक फीस देकर पढ़ाई पूर्ण करते हैं फिर दिन रात किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में जी तोड़ मेहनत करते हैं और दिन रात काम के तनाव में अपने जीवन के स्वर्णीम समय को पुरा का पुरा धन कमाने में ही लगा रहे हैं और नित नये इलैक्ट्रोनिक गजेटस् , गाड़ियां और फर्निचर खरीदने में सिमट कर अपना सुख तलाश रहे है। आज की युवा पीढ़ी एकल रहकर इन्ही के भरोसे अपनी दुनिया रंगीन बनाने में लगी है लेकिन वास्तविकता में जब तक सब कुछ सही चलता रहा तो ठीक वर्ना बढ़ते तलाक और डिप्रेशन के मरीज खुद ब खुद बता रहें हैं कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी दुनियां रंगीन बना रही है या रंग हीन बना रही है। काम का बढ़ता बोझ युवाओं को युवावस्था में ही बीपी शुगर आदि विभिन्न बिमारियों का शिकार बना रहा है। जिन भौतिक वस्तुओं को खरीद कर युवा उनके मद में स्वयं को महान और बड़ा आदमी समझने की भूल कर रहा है वे वस्तुएं सप्ताह के पाँच दिन घर में या तो बेकार पड़ी रहती हैं या उनके घरों में नौकर उन वस्तुओं का उपयोग कर रहे है। शायद वो मालिक से ज्यादा भाग्यशाली हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक एस एम एस पढ़ने को मिला कि हमारे देश में पिज्जा पहले पहुंचता है और एम्बूलेंस बाद में पहूँचती है, पढ़कर शायद अच्छा नही लगे लेकिन खुले दिल से सोचा जाएं तो इसमें कहीं ना कहीं सच्चाई छिपी है।
          आधुनिकता से हमें कुछ लाभ अवश्य हुआ है जैसे हमारी युवा पीढ़ी की सोच पहले से ज्यादा व्यापक हुई है वह विश्व पटल पर ज्यादा सशक्त रूप से अपना परचम लहराने लगा है और अपनी सकारात्मक सोच व अर्जित क्षमता के कारण आगे बढ़ा है। बस उसे आवश्यकता तो आधुनिकता के साथ साथ अपने मूल स्वरूप, रहन सहन आदर्श, नैतिकता,मर्यादा का सही समावेश करने की है। आज आधुनिकता के कारण हम से मैं में बदलती सोच को त्यागने या सुधारने की जरूरत है, बेतहाशा होड़ में पड़कर ई एम आई रूपी सूदखोर से उपर उठने की है।
तथा ई एम आई के उपयोग को जीवन की अहम् आवश्यकताओं मकान, शिक्षा तक ही सीमित रखने की है उसे उपभेक्तावादी आधुनिक अल्प समय काल वाली वस्तुओं पर खर्च करने की नही है।
         अन्त में कहना चाहूँगा कि आधुनिकता के नाम पर रिश्तों को खोने की बुनियाद पर सुखी होने {वास्तव में नही} से अच्छा होगा रिश्तों के साथ परम सुख का आनन्द उठाना जो हमारे पूर्वज करते आये हैं। हमें अपनी जड़े अपनी संस्कृति के धरातल में ही रखकर आधुनिकता के फलों का आनन्द लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित करनी होगी तभी हम सही जीवन शैली का आनन्द उठा पायेंगे।

ओ बी ओ पर पूर्व में प्रकाशित 

Sunday, August 04, 2013

क्यूं

         मुझे क्यूं लगता है , तुम्हे खो दुंगा ,
                                   तुम्हें पा लिया है ,
         ये भी तो मात्र एक भ्रम है !


         जाने क्यूं लगता है ,रो दुंगा ,
                                 हँस रहा हूँ ,
         ये भी तो मात्र एक भ्रम है !
                     नदी के किनारों सा,
         साथ चलते चलते ,
              क्यूं समझता हूँ ,मिलन होगा !
        अनवरत साथ बह पा  रहा हूँ ,
                 ये भी तो मात्र एक भ्रम है !


        जाने क्यूं समझता हूँ ,
                   तुम, ये, वो सब मेरा है !
        शाष्वत सच ये कहता है ,
                   जो भोग लिया वो सपना है ! ,
        जो उकेर दिया भाव ,वो अपना है !
                   प्रकृति का मात्र यही एक क्रम है !
         सात जन्मों का साथ,
                   भी तो मात्र एक भ्रम है !


         क्यूं यादों में खो जाते हैं ,
                   याद उन्हें कर जाते हैं ,
         बगैर किसी के चाहे भी ,
                   ख्वाबों में बसा जाते हैं !
         बिन उनके जी नही पायेंगे ,
                   प्यार का , ये कैसा क्रम है  ,
         जो सच ना होकर ,
                    मात्र मन का ही भ्रम है !


         जीवन का हर छोटा पल ,
                माँ की याद दिलाता है !
         साया सा हरदम उसका,
                निशछल अहसास कराता है !
         प्यार भरी ममता के आगे ,
                  सब बौना रह जाता है,
        यही मात्र एक ऐसा क्रम है ,
                 जो भ्रम नही , एक सच्चा क्रम है !
 

                पूर्व में ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना ।