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Monday, October 14, 2013

एक प्रश्न

                    हमारे जीवन की तमाम उलझनों से हम प्रतिदिन रूबरू होते रहते हैं, हमारा प्रतिदिन का लगभग 98 प्रतिशत कार्यक्रम भी पूर्व में ही निर्धारित किया हुआ होता है । अर्थात यदि व्यस्क हैं तो प्रातःकाल जल्दी जागना, तैयार होना, ईश वन्दना फिर रोजगार के दस धन्टे और शाम को घर परिवार का मिलन, टी वी या अन्य साधन से कुछ मनोरंजन या सूचनाएं एकत्र कर अपने दिमाग में भरना, भोजन और फिर सो जाना । और यदि घरेलु महिला हैं तो इसी दिनचर्या में रोजगार वाले दस धन्टों में साफ सफाई, घर के अन्य सदस्यों के काम करना, टी वी ,मनोरंजन, आराम फिर भोजन बनाकर सभी के आने की प्रतिक्षा , भोजन और निंद्रा शामिल हो जाता है। कामकाजी महिलाओे पर दोनो तरह के कार्यो का दबाव अतिरिक्त आ जाता है।
                  नव युवक एवं विधार्थी इस जीवन चर्या को पाने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं और अधिकांश बुजुर्ग अपने जमाने के विभिन्न शौर्य किस्से सुनाने और नई पीढ़ी को कोसने में व्यस्त नजर आते हैं अर्थात गृहस्थ जीवन जीने वालों की बात की जायें तो 1-2 प्रतिशत बुजुर्गो को छोड़कर बाकी सभी इसी दिनचर्या चक्र में सम्पूर्ण जीवन बिताते नजर आते हैं।
                 इस भागमभाग के बीच हमारे पास इतना समय नही होता कि हम एक पल भी कुछ अलग तरीके से सोच सकें। जैसे, क्या हमारा इस धरती पर जन्म इसी दिनचर्या को जीने के लिए हुआ है ?, क्या हमारे अस्तित्व का मूल उद्देश्य यही सब करना है या था ? क्या हमने कभी इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश की है ?
                 जब विषम परिस्थितियों से हमारा सामना होता है तब जिन्हें हम अपने समझते हैं वो भी हमारा साथ छोड़ जाते हैं जीवन की तेज रफ्तार में समयाभाव के कारण जो प्रश्न हमें निरर्थक प्रतीत होते थे वो विषम परिस्थितियों से उपजे एकाकीपन में सार्थक प्रतीत होने लगते हैं। और हमें एक पल के लिए सोचने को मजबूर जरूर कर देते है यदि आपको इन प्रश्नों का उत्तर मालूम है तो आप भाग्यशाली हैं और यदि नही मालूम तो क्या आप जानना नही चाहते हैं कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है ? हमें इस जन्म में क्या करना चाहिए ? क्या हम जिस दिशा में चल रहे हैं वही हमारी सही राह है ?

                ये सभी प्रश्न पढ़ने में बहुत सहज और सरल प्रतीत होते हैं। और एक रफ्तार में हम बहुत सहजता से इन्हें पढ़ जाते हैं चूकिं समयाभाव या गृहस्थी के चक्र्र के कारण इनका उत्तर तुरन्त नही खोज पाते इसीलिए हम इस प्रकार के प्रश्नों को गृहस्थ जीवन के विपरीत मात्र साधु सन्तों के लिए या आध्यात्मिक व्यक्तियों के लिए मान कर पल्ला झाड़ने की कोशिश में लगे रहते है । अर्थात हम धर्म गुरूओं के उत्तर को ही अपना उत्तर भी मानने के लिए तैयार हैं या ऐसा समझ लें कि उनके जीवन के उद्देश्य को हम अपने जीवन का उद्देश्य मान लेने को तैयार हैं । तो क्या फिर हमें भी अपना जीवन उनकी तरह जीना चाहिए ?

               ऐसा शायद नही है , गृहस्थ जीवन छोड़कर अकेले रहने से आप चुनौतियों से दूर हो जायेंगे फिर आपका परिश्रम आधा ही रह जायेगा। वैसे भी गृहस्थ जीवन को सफलता पूर्वक निभाना सबसे कठिन साधना का प्रतीक माना गया है जो इससे विमुख होकर आध्यात्मिकता में लीन हो जाता है उसका जीवन के रहस्यों को समझने का अपना नजरिया बन जाता है और घर परिवार की जिम्मेदारियों को भलीभाँति निभाते हुए जीवन के रहस्यों को समझना उससे भी कठिन कार्य है ।

              हमारे आध्यात्मिक गुरूओं ने कहा है कि हमारी आत्मा ईश आत्मा का एक अंश है । जब ऐसा हम मानते हैं तो क्यों ना हमारे मन में उठते प्रत्येक प्रश्न का जवाब भी किसी और से पूछने की बजाय हमारे अन्दर विद्यमान उसी परम आत्मा के अंश से ही प्राप्त करें। ऐसा करने के लिए एक सरल सा तरीका है हमें स्वयं से प्रश्न पूछना होगा अर्थात प्रश्न कर्ता और जवाब देने वाले के बीच और कोई व्यवधान ना रहे ऐसी स्थिति बनानी होगी इसके लिए अपने मन को सांसारिक कर्तव्यों से कुछ पलों के लिये अलग करके एकान्त में बैठना होगा। न्याय के तराजु की तरह तटस्थ रहते हुए स्वयं अपने आप से ऊपर बताये गये प्रश्नों को पूरे मनोयोग से करना होगा।

             हो सकता है प्रथम बार में इनमें से किसी भी प्रश्न का जवाब ना मिलें। लेकिन यह निश्चित है कि यदि ऐसा लगातार कुछ दिन किया गया तो विभिन्न जवाब हमारे सामने आने लगेंगे उनमें से प्रत्येक जवाब का अपना एक वजूद होगा प्रत्येक जवाब किसी ना किसी दृष्टिकोण से सही प्रतित होगा। ऐसे ही कुछ विचार निम्न हैं जो जवाब के रूप में मन में आ सकते हैं।

             प्रथम - यह संसार व्युत्पत्ति और विनाश का एक क्रम है जो निरंतर चलता रहता है और अन्य जीवों की तरह ही इंसान भी उसी कडी के एक हिस्से के रूप में जन्म लेता और मरता है। हमारा जन्म हुआ और इसी प्रकार आगे भी जन्म होते रहेंगे अर्थात यह एक प्राकृतिक और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया मात्र ही है और चुकिं हमारा जन्म हुआ अतः हमें अपनी आजीविका चलाने के लिये हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाये उसी प्रकार निर्वाह करना होगा और इसी प्रकार की रोजगार पूरक शिक्षा हम लेते भी हैं।

             दूसरा- कारण आध्यात्मिक है अर्थात इस पूरी सृष्टि को चलाने वाली कोई देव शक्ति है जो विभिन्न जीव आत्माओं को उनके पिछले जन्म में किये कार्यो के आधार पर इस जन्म में शरीर देती है और जब एक निश्चित समय अवधि में हम कर्म कर लेते हैं तो पुनः हमें नये रूप में शरीर प्रदान कर दिया जाता है। अर्थात हमारे कार्य की जिम्मेदारी स्वेच्छा से निर्धारित नही होती है।

              तीसरा -कारण केवल आधुनिक सोच और वैज्ञानिकता से मिलता जुलता हमारे मन में सकता है कि हमारे माता पिता को हमारे जन्म से पूर्व यह नही मालूम था कि हम ही जन्म लेंगे और ना ही वो हमारा जन्म करवाने के लिये वचन बद्ध थे हमारा जन्म एक सांसारिक प्रक्रिया का परिणाम है इस कारण हमें इस इंसान रूपी शरीर को धारण करना पड़ा और हमारे माता पिता अपने अच्छे अनुभवों के अनुसार हमसे वो ही नियम अनुसरण करवाते हैं जिससे हमारा जीवन अच्छी प्रकार बीत जायें। इसे ही हम पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते जाते हैं अर्थात हम हमारे पालन कर्ता के अनुसार अपनी शिक्षा और रोजगार का निर्धारण करते हैं। पूर्व निर्धारित कोई भी लक्ष्य हमसे नही जुड़ा होता है  

               हम सभी की मानसिक दशा, अनुभव और ज्ञान के अनुसार और भी अनेक प्रकार के जवाब हमारे मन में आयेंगे और वो हमे सर्वाधिक उपयुक्त भी प्रतीत होंगे । और हो सकता है आप इस लेख को पढ़कर हँसते हुए कह जायें ”ये सब सोचना बकवास है इससे किसी का पेट नही भरता“, आपका यह सोचना किसी हद तक सही भी है लेकिन सत्यता इससे परे है ।

             दरअसल यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में प्रत्येक इंसान के स्वतंत्र विचार हो सकते हैं और इस तेज रफ्तार जीवन में स्वयं के लिये किसी के पास समय नही है आज हमने अपना सारा समय भौतिक सुख सुविधाओं की व्यवस्था करने या परिवार की आवश्यकताओं पर केन्द्रित कर रखा है। लेकिन यह भी सत्य है कि स्वयं से प्रश्न करने पर और कोई अहसास हो या ना हो पर यह अनुभूति तो जरूर होगी कि मैं सांसारिक रोजगार पूरक ज्ञान ही रखता हूँ एवं स्वयं की भाषा, शरीर, आगमन, निर्गम के बारे में अनपढ़ ही हूँ ।                                                                      
              इस विषय का कोई अन्त नही है और ना ही इस छोटे से लेख के माध्यम से आपसे चर्चा कि जा सकती है और जब तक किसी से सार्थक चर्चा ना हो निष्कर्ष निकलना नामुमकिन है अतः लेखनी को विराम देते हुए अन्त में इतना जरूर कहा जा सकता है कि यदि हमने अपने आप से प्रश्न किए तो हमारी दिनचर्या और सोचने की दिशा निश्चित रूप से बदलेगी एवं जीवन में ज्यादा सकारात्मक सोच बनने लगेगी इसी के साथ साथ नित्य प्रति की समस्याओं को अधिक आसानी से सुलझाने में मदद मिलेगी और घरेलू निर्णय ज्यादा आसानी से एवं सही रूप से लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित कर सकेंगे । यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।

डी पी माथुर

Sunday, October 06, 2013

अभिव्यक्ति का एक प्रकार आलोचना

          हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे चुप रहने के लिए कहा जाता है।

         जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक आयु वर्ग के इंसानों में ज्यादातर अलग अलग विषयों पर बातचीत की जाती है। छात्रों में अपने स्कूल, खेल आदि की बात की जाती है तो घरेलू महिलाओं में ज्यादातर घर परिवार या टी वी सीरियल तथा पास पड़ौस का विषय मुख्य होता है। इसी प्रकार कामकाजी महिलाओं, पुरूषों तथा बुजुर्गो के बातचीत के विषय अलग अलग होते हैं। ऐसा होेना स्वाभाविक भी है क्योंकि हम सभी का मानसिक ज्ञान , कार्य स्थली, संगी साथी तथा हमारे आस पड़ौस का वातावरण भिन्न भिन्न होता है।

        लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि एक ऐसा सामान्य विषय है जिसका प्रयोग लगभग सभी आयुवर्ग और प्रोफेशन के लोगों द्वारा कभी कभी अपनी बातचीत में किया जाता है ! जी हाँ आप सही समझ रहे हैं हम यहां आलोचना के अनेक रूपों यथा व्याख्यात्मक ,सैद्धान्तिक ,निर्णयात्मक ,प्रभाविक आदि में से एक व्यवहारिक रूप की ही चर्चा कर रहे हैं।

        आलोचना करना या परनिन्दा करना एक ऐसा विषय है जिसकी अपनी कोई सीमा या परिभाषा नही होती वो प्रत्येक इंसान और स्थिती में बदल जाता है पर सदा मौजुद रहता है । किसी के बारे में विश्लेषण के लिये समालोचना की जाती है तब तक तो अच्छा है पर जब यह परनिन्दा का रूप ले लेती है तो बुराई की श्रैणी में आ जाती है। आलोचना के इस रूप को जाने अनजाने हम सभी अपनी वार्तालाप में स्थान दे ही देते हैं।

       दरअसल आलोचना का अर्थ है किसी भी इंसान या वस्तु के सभी अच्छे बुरे गुण एवं दोषों को अच्छी तरह परख कर उसकी विवेचना या समीक्षा करना। इस विधा का उपयोग करने से जिसकी आलोचना की जाती है उसे अपनी कला में और सुधार करने की प्रेरणा मिलती है किन्तु यह बीते जमाने की बात हो गई प्रतीत होती है आजकल की आधुनिक आलोचना तो बस व्यक्तिगत निन्दा का ही रूप धारण कर चुकि है एवं पहले की भाँति अब किसी की आलोचना करना प्रोत्साहित करने की बजाय उसके दिल को ठेस पहुँचाने का कार्य करता है। इतना ही नही आज धन का उपयोग कर कुछ धनाढ़य अन्य साहित्यकारों की रचनाओं को अपनी रचना घोषित करवा कर अपने पक्ष में प्रशंसा वाली व्याख्या और विश्लेषण करवाने में भी कामयाब हो जाते हैं।

          महिलाओं के बारे में यह किवंदती है कि वे निन्दा अधिक करती हैं लेकिन सच में ऐसा नही है। पुरूषों द्वारा भी समान रूप से निन्दा की जाती है लेकिन उनकी निन्दा दिखाई नही दे पाती क्योंकि पुरूष कम बोलते हैं और महिलाएं अधिक बोलती हैं। यदि दोनो के बोलने के अनुपात में निंदा का आकलन किया जाये ंतो प्रतिशत में रेश्यो लगभग समान ही आयेगा।

      एक कारण और है निन्दा सदैव कुछ औपचारिक बातों को करने के बाद वार्ता को आगे बढ़ाने के रूप में प्रारम्भ होती है चूंकि पुरूष ज्यादा बातें नही करके मात्र औपचारिक बातें ही करते हैं अतः निन्दा प्रारम्भ होने से पूर्व ही उनकी बात खत्म हो जाती है इससे यह भ्रम बनता है कि पुरूष निन्दा नही करते । यदि पुरूषों को लम्बी बातें करनी पड़ती है तो वहां भी निन्दा आ ही जाती है।

         इंसान निन्दा क्यूं करता है यदि हम इसका विश्लेषण करने की कोशिश करें तो अनेकों तथ्य सामने आते है जैसेः

प्रथम- वार्ता को लगातार आगे बढ़ाने के लिए कोई ना काई विषय चाहिए होता है और वार्ता करने वाले दो व्यक्ति जिस तीसरे को जानते हैं उसके बारे में बात करना काफी आसान होता है।

द्वितीय- व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में यदि कोई लगनपूर्वक कार्य करता है तो अन्यों की नजर में उसकी पैठ विकसित होने लगती है क्योंकि कार्य सभी को प्यारा होता है अतः उसके साथियों द्वारा उसकी निन्दा प्रारम्भ हो जाती है।

तृतीय-  इंसानी प्रवृति है कि कोई आपका घरेलू या जानकार सदस्य आपसे ज्यादा उन्नति कर रहा है तो उससे ईर्ष्या भाव पैदा होने लगता है अब चूंकि उसके सामने उसकी निन्दा करके उससे सम्बन्ध खराब नही करना चाहते हैं अतः उसके पीछे से निन्दा करके मन का असंतोष निकाला जाता है।

चतुर्थ- आज के जमाने में इंसानी हैसियत मात्र पैसे के दम पर आँकी जाती है जो जितना धनाढ़य उसकी उतनी ही इज्जत और हैसियत समझी जाती है एवं उसके नजदीक के लोगो के लिये उसकी निन्दा अपनी हैसियत नीचे ना दिखें इसलिए कि जाती है।

          धनाढ़य वर्ग द्वारा गरीब की निन्दा उसकी हँसी उड़ाने के लिए की जाती है। इसी प्रकार सभी की चहेती घरेलू महिला की अन्य बराबर वाली महिलाओं द्वारा निन्दा किया जाना भी आम रूप से देखा जाता है। और भी अनेक कारण आपकी नजर में होंगे लेकिन मुख्य बात ये है कि क्या हमें अपनी इस बुरी आदत पर लगाम लगाने की पहल नही करनी चाहिए ? जब भी हमें आलोचना करने का मौका मिले जरूर करें लेकिन उस आलोचना में सामाजिक स्थिति, वातावरण, आलोचित होने वाला साहित्य या व्यक्ति तथा परिस्थितियों को देखते हुए अपनी बुद्धि का सही रूप से उपयोग करते हुए यह ध्यान रखें कि इस आलोचना का उस पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।

                                 डी पी माथुर

पूर्व में ओ बी ओ पर प्रकाशित मेरी रचना

Wednesday, October 02, 2013

श्राद्ध

                      चिड़ियों की चहचहाहट और कोयल की कूह कूह ने नित्य की तरह फिर से प्राकृतिक अलार्म बजाकर भोर होने का संदेश सुनाया और मैने कुछ पल सुस्ताते हुए बिस्तर त्याग दिया। लाईट जली देख कर कुछ ही देर में पत्नि भी उठ गई और अपने कमरे से अंगड़ाई लेती हुई बिना बात किये मात्र औपचारिक मुस्कुराहट के साथ अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो गई। आज प्रातः घर का माहौल कुछ अलग अलग भारी सा प्रतीत हो रहा है और दिनों की तुलना में आज कुछ ज्यादा ही शांति महसूस हो रही है। मैं भी अपने दैनिक कार्यो के बाद अखबार के पन्नों को बदलते हुए, सब कुछ सामान्य ही है ऐसा दिखाने की चेष्टा कर चुपचाप बच्चों के जागने की प्रतिक्षा करने लगा फिर कुछ देर में ही उकता कर अपनी पसंदीदा कलम से मन के उदगारों को आकार देने में व्यस्त हो गया ।

                    दरअसल आज ही के दिन मेरी परम पूज्य करूणामयी माँ हम सभी को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई थी शायद ईश्वर को उनकी याद आ गई थी। और कल रात देर तक मैं और धर्म पत्नि माँ के बारे में बातें करते करते सोने चले गये थे। आज उनका श्राद्ध है ।

                    माँ के बारे में सोचकर जब मन उदास होने लगा तो तुरन्त दूसरे मन ने उसे ढ़ाढ़स बंधाते हुए समझा दिया और यह प्रकृति का क्रम यूंही चलता रहेगा। मन की बात मानते हुए गुजरे जमाने की यादों में खोने लगा और महसूस करने लगा कि माँ चाहे हमारे पास से भौतिक रूप से चली गई हों पर उनका प्यार तो आज भी पूर्ववत निरंतर हम पर अपनी करूणा बरसा रहा है। एक माँ का अपने बच्चों के लिए प्यार और त्याग कितना गहरा होता है यह अहसास उनके जाने के बाद ज्यादा व्याकुल कर देता है , नम आँखें माँ के लिये सोचती सोचती कब छलकने लगी इसका अहसास ही नही हो पाया, हाथ की कलम शब्दों को उकेरते उकेरते कांपने लगी। आँखो से निकल कर अश्रु जब कागज पर गिरा तो अहसास हुआ कि यह माँ का पुत्र पर दर्शाया प्यार ही है जो इतना ज्यादा हो गया है कि शरीर में समा नही पा रहा है और अपनी सीमाएं लांघकर आँखों के द्वार से बाहर छलक गया है।

                 मेरी कलम को स्वतः ही विराम मिल गया , मैने अपना चश्मा उतारा और आराम कुर्सी से सर लगा कर शुन्य में देखने लगा। कुछ ही पलों में मैने अपने चश्में को साफ करके वापस लगाया और अपने लैटर पैड को उठा कर वापस कलम चलाते हुए विचारों के अथाह समुंद्र में खो गया।
यह कैसा रूप है प्यार का ?

                हम सभी जीवन में प्यार के सभी रूपों से रूबरू होते रहते है जैसे मित्रों, पारिवारिक सदस्यों और सहृदय पत्नि का पल पल छलकता प्यार एवं एक पिता होने की जिम्मेदारी के साथ महसूस किया जाने वाला प्यार।

                दरअसल प्यार और करूणा का जो रूप एक माँ में विद्यमान होता है वह ओर कहीं भी नही दिख सकता जिसमें प्रेम, त्याग, वात्सल्य और अनेकों रूपों का समावेश है। मैं अपनी इन पंक्तियों  के माध्यम से आपके मन में एक पल के लिए माँ की याद दिलवा सका यही मेरी माँ का सच्चा श्राद्ध और एक पुत्र होने का कर्तव्य है।

भीड़ में तन्हाई सता रही है ,
अकेला हूँ , अहसास करा रही है ,
आत्मा , शरीर  बन्धन में छटपटा रही है,
यादें बोझ बनकर , क्यूं रूला रही है,
ये आज पल-पल, माँ क्यूं याद आ रही है ।

डी पी माथुर